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मुनि परम्परा का विकास ऋग्वेद से लेकर महावीर तक : 39 है। धम्मपद में 'मुनि' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गयी है- 'यो मुनाति उभो लोके मुनि तेन पवुच्चति' । 'मुण्' धातु के विषय में यह अवलोकनीय है कि वैदिक साहित्य में 'मुण्' धातु प्राप्त होना दुर्लभ है और लौकिक संस्कृत साहित्य में यह प्राप्त नहीं होती है। तैत्तिरीय आरण्यक' में 'नृ मुणन्तु' की भट्ट भास्कर इस प्रकार व्याख्या करते हैं- 'नरः प्रतिजानन्तु' । प्राकृत वैयाकरण संस्कृत की 'मुण्' धातु को न जानने के कारण संस्कृत ‘जानाति के लिए प्राकृत में मुण का आदेश किया है 'जानातेर्जाण मुण इत्यादेशौ भवतः । प्राकृत और पालि में इस धातु का बहुतायत मात्रा में प्रयोग किया गया है । पिशेल ने मुणई, मुणादि, मुणेयव्व, मुणेदव्व आदि को विभिन्न प्राकृत ग्रन्थों में सन्दर्भित किया है। इस धातु का प्रयोग अपभ्रंश रूप में भी किया गया है - " सरह - सेस - हर मुणहु सत्ताइस खंधाण" अर्थात् हे शरभशेषधर कवि ! इसके सत्ताइस भेद जानो। छान्दस् और लौकिक संस्कृत में इसके दुरूह प्रयोग के साथ ही प्राकृत, पालि, अपभ्रंश में इसके विपुल सन्दर्भों की प्राप्ति इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि 'मुण्' धातु और उससे उत्पन्न 'मुनि' शब्द वैदिक साहित्य में उस प्राक् ऋग्वेदीय भारतीय आर्य शब्द-भण्डार से उधार लिया गया है जिसकी धरोहर प्राकृत भाषाओं में सुरक्षित है। धार्मिक साहित्य के प्रणयन के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है।
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इस तथ्य का समर्थन इससे भी होता है कि वेद और ब्राह्मण साहित्य में केशी सूक्त १२ (ऋग्वेद) को छोड़कर 'मुनि' शब्द का प्रयोग केवल १२ बार किया गया है, जबकि पालि और प्राकृत में मुनि के अगणित उल्लेख हैं। इस प्रकार मैकडोनेल और कीथ १३ के इस मत के विरुद्ध कि वैदिक साहित्य में 'मुनि' शब्द के यदा-कदा प्रयोगों के कारण वैदिक काल में मुनियों के अस्तित्व की कमी अनुमानित नहीं करनी चाहिए, भाषा-वैज्ञानिक साक्ष्य वैदिक समाज में मुनि को आगन्तुक तत्त्व मानने का संकेत देते हैं। मुनि-तत्त्व की प्रारम्भिक स्थिति को ज्ञात करने के लिए केशी- सूक्त असाधारण साक्ष्य उपलब्ध कराता है। इसके साथ ही साथ यह एक ऐसा तटबन्ध है जिसका मुनि के अन्य प्रसंगों से साक्षात् सन्दर्भ नहीं है। इस सूक्त में मुनियों की अनेक लाक्षणिक विशेषताओं की ओर संकेत दिया गया है, जिनकी अनेकशः व्याख्याएँ भी की गयी हैं और इसलिए यह विशेष रूप से विवाद का विषय बन गया है। अतएव इस गम्भीर प्रश्न की गहन गवेषणा करना वांछनीय प्रतीत होता है।
मुनियों के सन्दर्भ में कहा गया है कि वे 'मुनयो वातरशना पिशंगावसते मला' अर्थात् पिशंग मल धारण करते हैं । पिशंग मल की अनेक व्याख्यायें की गई हैं। इसी सूक्त में उद्धृत सप्तम मंत्र में रुद्र के प्रसंग के कारण मल का अर्थ भस्म किया गया है। क्योंकि पश्चाद्वर्ती पाशुपत तपस्वी भस्म - शयन और भस्म - लेपन करते थे । किन्तु 'वस्’