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32 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 1, जनवरी-मार्च, 2016 परम्परा में नारी-शिक्षा का एक और उत्कृष्ट उदाहरण मिलता है। १४वीं शती ई० में गुजरात तपागच्छ विश्वविद्यालय में स्त्रियों को भी विविध उपाधियों से सम्मानित किये जाने की परम्परा थी। यथा- गणिनी (गणों की नेतृत्वकर्ता), प्रतिनी (कार्यकर्ती) और महात्रा (महान स्त्री)।२२ स्पष्ट है कि जैन परम्परा में प्रारंभ से ही शिक्षा अथवा ज्ञानार्जन के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण था। साथ ही नारी-शिक्षा को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया, जिसे आज भी निरन्तरता में देखा जा सकता है। साहित्यिक अध्ययन से स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय समाज नारी के औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा को समान रूप से महत्त्व देते हुए उनके समग्र विकास के लिए प्रतिबद्ध था। परन्तु भारतीय कला में औपचारिक शिक्षा के स्थान पर अनौपचारिक शिक्षा के अंकन को अधिक महत्त्व मिला जिसके अन्तर्गत गायन, वादन, नृत्य, आखेट, चित्र-निर्माण, लेखन एवं विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाओं में संलग्न नारियों के विविध रूप से दर्शन होते हैं। साथ ही ज्ञान की देवी के रूप में सरस्वती के रूपायन के माध्यम से नारी के सम्मान और ज्ञान के समन्वित रूप को भारत की तीनों ही परम्पराओं (वैदिक-पौराणिक, बौद्ध एवं जैन) ने आदर सहित स्वीकारा है। भारतीय कला में इस प्रकार के उदाहरणों के अंकन को सैन्धव काल से लेकर वर्तमान काल के विविध शास्त्रीय एवं लोक कलाओं में स्पष्टतः देखा जा सकता है। भारतीय कला के ये उदाहरण हमें अभिलेखों, मूर्तियों एवं चित्रों के रूप में अखिल भारतीय स्तर पर प्राप्त होते हैं। भारतीय कला में नारी के अंकन के प्रमाण प्रागेतिहासिक काल से लेकर निरन्तरता में आधुनिक युग तक प्राप्त होते हैं परन्तु कालक्रम के विकास, बौद्धिक विकास एवं सामाजिक संरचना में आये बदलाव के विभिन्न स्वरूप नारी अंकन में काल विशेष का स्वरूप प्रकट करते हैं। वासुदेव शरण अग्रवाल ने ठीक ही कहा था, "भारतीय कला भारतवर्ष के विचार, धर्म, तत्त्वज्ञान और संस्कृति का दर्पण है।"२३ सैन्धव कालीन अंकन में सामान्तया नारी के मातृत्व रूप का दर्शन होता है। इस काल की प्रसिद्ध नृत्यरत कांस्य मूर्ति (मोहनजोदड़ो) और पाषाण में निर्मित महानर्तकी की मूर्ति (हड़प्पा) अपनी नग्नता, मुद्रा एवं माध्यम आदि की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। दोनों मूर्तियाँ अथर्ववेद (२०/१३६/११) और शतपथ ब्राह्मण (१/२/१६ एवं ३/५/ १/११) में आये वर्णन के अनुरूप 'प्रकृतिस्वरूपिणी शाश्वती स्त्री' या 'मातृदेवी' रूपं के साथ नारी सौन्दर्य का प्राथमिक प्रतिमान तय करती हैं२४ अर्थात् सैन्धव काल में शिल्पियों का मूल मंतव्य नारी के मातृत्व स्वरूप को स्थापित करना ही था। मौर्य काल की आदमकद से बड़ी यक्षियों की मूर्तियाँ नारी सौन्दर्य के आदर्श को स्थापित