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श्रमण परम्परा समन्वित भारतीय परम्परा एवं कला में नारी शिक्षा के आयाम
डॉ० शान्ति स्वरूप सिन्हा
शिक्षा किसी भी व्यक्ति, समाज अथवा देश के विकास की वह कड़ी होती है, जिससे विकास समग्रता में होता है । सामान्यतया शिक्षा को विद्या, ज्ञान, श्रुति इत्यादि के अर्थों में देखा गया है। शिक्षा 'शिक्ष' धातु से बना है जिसका अर्थ है सीखना अथवा सिखाना। इसी प्रकार विद्या शब्द भी 'विद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है ज्ञान, जानना अथवां पता लगाना । वस्तुतः मानवीय आवश्यकताओं ने शिक्षा का उत्तरोत्तर विकास किया, क्योंकि पहले आवश्यकताएँ सीमित थीं, तो कुछ लिखने-पढ़ने और गृहस्थी-संचालन की निपुणता प्राप्त करना काफी था, परन्तु जैसे-जैसे आवश्यकताएँ और समाज की परिपक्वता बढ़ी, वैसे ही शिक्षा की अनेक जटिलताओं के साथ शिक्षा के आयाम भी बढ़े। शिक्षा का मूल उद्देश्य है शारीरिक, बौद्धिक एवं भावनात्मक शक्तियों का विकास, जिससे व्यक्ति सहजता, सच्चाई और परहित को ध्यान में रखकर जीवन निर्वाह कर सके, साथ ही कलापूर्ण और सौन्दर्यमय जीवन व्यतीत कर सके। समाज में आदरणीय और विश्वासपात्र बन सके तथा देशभक्ति भावना के साथ ही मानवता की सेवा करने में सक्षम हो सके।
किसी भी बालक/बालिका की प्रथम शिक्षा उसके घर से संस्कार और शिक्षा के रूप में प्राप्त होता है और माता प्रथम शिक्षिका होती है। अतएव पुरुषों की शिक्षा से स्त्रियों की शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वे हमारी भावी सन्ततियों की माताएँ हैं। महामना पं. मदन मोहन मालवीय जी ने नारियों के सर्वांगीण विकास के लिए 'नारी शिक्षा व्यवस्था' पर जोर देते हुए कहा था कि "नारी - शिक्षा में प्राचीन तथा नवीन सभ्यताओं के सभी गुणों का समन्वय हो और जो अपनी शिक्षा द्वारा भावी भारत के पुनर्निमाण में पुरुषों से सहयोग कर सके” अर्थात् नारियों को परम्परागत ज्ञान के साथ ही आधुनिक विज्ञान की शिक्षा अनिवार्य रूप से प्रदान की जाए। वस्तुत: मालवीय जी ने औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा के समान महत्त्व की ओर ध्यानाकर्षित किया है, जो भारतीय संस्कृति का मूलतत्त्व भी है। भारत में अत्यन्त प्राचीन काल से ही नारी - शिक्षा के इन्हीं दोनों पक्षों का समर्थन किया गया है । औपचारिक शिक्षा जहाँ ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि करती है वहीं अनौपचारिक शिक्षा उसे सहजता, ग्राह्यता एवं सद्गुणों की शक्तियों से युक्त कर मानवीय संवेदनाओं से जोड़ती है। नारियों में स्वाभाविक रूप से ही पुरुषों की अपेक्षा इन शक्तियों की ग्राह्यता अधिक होती है,