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________________ कारक प्रकरण का तुलनात्मक अध्ययन : कच्चायन और पाणिनि ...: 19 कच्चायन और पाणिनि दोनों ने कारकसंज्ञक सूत्रों का विशिष्ट क्रम रखा है, दोनों का क्रम प्रायः समान है। पाणिनि ने अपादान, सम्प्रदान, करण, अधिकरण, कर्म और कर्ता के क्रम में तो वहीं कच्चायन ने अपादान, सम्प्रदान, अधिकरण, करण, कर्म और कर्ता के क्रम में सूत्रों को नियोजित किया है। माना जाता है कि 'विप्रतिषेध परिभाषा' के अनुरोध पर यह क्रम रखा गया है। इसमें परस्पर तुल्यबल से विरोध या युगपत् प्राप्ति होने पर परवर्ती कारक का प्राधान्य होता है। कम महत्त्वपूर्ण कारक पहले दिए गए हैं और अधिक महत्त्वपूर्ण बाद में, इस तरह कारकों का महत्त्व क्रमश: बढ़ता हुआ बताया गया है। विप्रतिषेध परिभाषा की कारकों में प्रवृत्ति होने की पृष्ठभूमि में यही युक्तिसंगत विकास-क्रम काम कर रहा है। दोनों व्याकरणों के आधार पर विभक्ति सूत्रों के क्रम पर दृष्टिपात किया जाए तो काफी अन्तर दिखाई पड़ता है। कच्चायन ने विभक्तियों को प्रथमा, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, द्वितीया, षष्ठी और सप्तमी के क्रम से योजित किया है जबकि पाणिनि ने द्वितीया, चतुर्थी, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, प्रथमा, षष्ठी के क्रम से विभक्ति सूत्रों को संयोजित किया है। कारक प्रकरण के सूत्रों का प्रत्येक कारक को लक्ष्य में रखकर तुलनात्मक अध्ययन यहाँ प्रस्तुत हैकर्तृ-कारक- कच्चायन व्याकरण में 'लिंगत्ये पठमा'(२८६) सूत्र द्वारा लिङ्गार्थ (प्रातिपदिकार्थ) के अभिधान मात्र में प्रथमा की जाती है ऐसा कहा गया है। पाणिनि 'प्रातिपदिकार्थलिंगपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा' (२.३.४६) सूत्र द्वारा प्रातिपदिकार्थ के अतिरिक्त लिंगमात्राधिक्य, परिमाणमात्राधिक्य, वचनमात्राधिक्य में भी प्रथमा विभक्ति का विधान करते हैं। पालि व्याकरण में 'यो करोति स कत्ता'(२८३) कहकर करने वाले की कर्तृ संज्ञा कही गई है। जबकि कर्ता के स्वरूप को बतलाने में पाणिनि सूत्र इससे व्यापक है- 'स्वतन्त्रः कर्ता' (१.४.५४) अर्थात् क्रिया की सिद्धि में जो स्वतन्त्ररूपेण (प्रमुखतया) विवक्षित होता है, उसकी कर्त संज्ञा होती है। प्रयोजक कर्ता के सम्बन्ध में दोनों वैयाकरणों की संज्ञाएँ एक सी हैं। प्रेरक कर्ता की हेतु एवं कर्ता संज्ञा, दोनों कही गई है। कर्म-कारक- अष्टाध्यायी में कर्मसंज्ञक ८ सूत्र तथा द्वितीया विभक्ति विधायक ११ सूत्र हैं, जबकि कच्चायन व्याकरण में कर्मसंज्ञक १ तथा द्वितीया विधायक सूत्र ४ हैं। 'यं करोति तं कम्म' (२८२) सूत्र की वृत्ति में कहा गया है- 'यं वा करोति, यं वा पस्सति, यं वा सुणाति तं कारकं कम्मखं होति'। जिसको किया, देखा और सुना जाय, उस कारक की कर्म संज्ञा होती है। पाणिनि ने कर्मसंज्ञा का लक्षण दिया
SR No.525095
Book TitleSramana 2016 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2016
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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