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14 : श्रमण,
वर्ष 67, अंक 1,
जनवरी-मार्च, 2016
जैन अध्यात्म का चरमोत्कर्ष तीर्थंकर पद प्राप्ति है। यदि हम जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के चिह्न देखें तो उनका पर्यावरण से सीधा सम्बन्ध परिलक्षित होता है। तीर्थकरों के प्रतीक-चिह्न पर्यावरण-संरक्षण को अपने में समेटे हुए है। तीर्थंकरों ने प्रकृतिजन्य - पशु और वनस्पति- जगत् के प्रतीक चिह्नों से अपनी पहचान को जोड़ा। इनमें बारह थलचर-जीव, जैसे- वृषभ, हाथी, घोड़ा, बंदर, गैंडा, महिष, शूकर, सेही, हिरण, बकरा, सर्प और शेर ये सभी जैन तीर्थंकरों के लांछन है। इनमें शूकर प्राणियों से उत्सर्जित - मल का भक्षणकर पर्यावरण को शुद्ध रखने वाला एक उपकारक-पशु है। सिंह को छोड़ शेष सभी ग्यारह पशु शाकाहारी हैं, जो शाकाहार की शक्ति के संदेशवाहक हैं। चक्रवाक नभचर प्राणी है तथा मगर, मछली और कछुआ जलचर-पंचेन्द्रिय जीव हैं। ये जल प्रदूषण को नष्ट करने में सहायक जल-जंतु हैं। लाल एवं नीला कमल तथा कल्पवृक्ष, वनस्पति- जगत् के प्रतिनिधि है। इनमें कमल सुरभित - पुष्प है, जो वायुमण्डल एवं पर्यावरण को न केवल सौन्दर्य प्रदान करता है, वरन सुगन्धित भी करता है। इसके अतिरिक्त कल्पवृक्षों की कल्पना, स्वस्तिक चिह्न, वज्रदण्ड, मंगल-कलश, शंख और अर्धचन्द्र सभी मानव-कल्याण की कामना के प्रतीक हैं और किसी न किसी अर्थ में प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े हुए हैं।
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जैनों के समस्त जैनतीर्थ, अतिशय, सिद्धक्षेत्र, निर्वाण-क्षेत्र हरे भरे वृक्षों से युक्त पर्वत शिखरों एवं प्रकृति की मनोरम - उपत्यकाओं एवं प्रकृति की गोद में स्थित हैं और सभी प्रदूषण से मुक्त हैं। यह निश्चित रूप से उनके प्रकृति के प्रति आस्था और प्रेम का परिचायक है।
अध्यात्म साधना के क्षेत्र में जैन मुनि जीवनभर के लिए एक स्वीकृतचर्या का पोषक होता है। मुनि के लिये स्वीकृतचर्या पर्यावरण संरक्षण का एक अनुपम उदाहरण है। साधु के अट्ठाइस मूलगुणों में पाँच महाव्रतों, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों के विषयों का निरोध, छः आवश्यक और सात गुप्ति और समितियों का विधान है। ये सभी साधक के अपनी आत्मा में अवस्थिति का साधन हैं। समिति के पालनार्थ वह मौनव्रत का संयम रखता है, जिसे ध्वनि-प्रदूषण के विसर्जन का एक प्रयास माना जा सकता है। मुनि अपने मल-मूत्र का क्षेपण स्थण्डिल, निर्जन्तु व एकान्तस्थान में करता है, जो वायु प्रदूषण के बचाव का एक प्रशंसनीय प्रयास है।
जल संरक्षण की दिशा में जैन मुनियों का प्रारम्भ से प्रयास रहा है। साधु-साध्वियों द्वारा अपने शरीर के स्नानादि - संस्कार के निषेध के पीछे उनका अहिंसा एवं जल