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भारतीय दार्शनिक परम्परा में पारिस्थितिकीः जैन परम्परा के विशेष सन्दर्भ में: 15 अपव्यय रोकने का ही भाव है। जल हमारे जीवन का एक मुख्य स्रोत है। जल में पैदा होने वाली कतिपय सूक्ष्म वनस्पतियां पृथ्वी पर ५० से ७० प्रतिशत तक प्राणवायु का उत्पादन करती है। जल प्रदूषण से अफ्काय सहित अन्य जीवों की भी हिंसा होती है। पानी की एक बूंद में ३६४५० जीव होते हैं और यदि हम एक बूंद भी जल प्रदूषित करते हैं तो कितने जीवों की हिंसा करते हैं। जैन धर्म के अनुसार नदी, तालाब, कुएं में प्रवेश करके स्नान नहीं करना चाहिये। शारीरिक मलों के उत्सर्जन से विजातीय तत्त्व जल में मिश्रित हो जाते हैं। जैन मुनि आज भी जल का अपव्यय नहीं करते। उन्हें तो श्रावकों द्वारा बर्तन और चावल आदि के धोवन का पानी कल्प्य है। वे सचित्त जल का प्रयोग नहीं करते। भगवान महावीर ने कहा हैजल की हिंसा का तात्पर्य जल-प्रदूषण से है। अत: जल का अपव्यय एवं संरक्षण दोनों आवश्यक है। दिन में एक बार खड़े होकर शुद्ध सात्विक अयाचित आहार ग्रहण करके मनुष्य की बहगणित-अभिलाषा को विराम देने का भाव जैन दिगम्बर मनियों मे निहित है, क्योंकि मनुष्य ही अनंत इच्छाओं का समूह और अपनी इच्छापूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों का किसी भी सीमा तक दोहक है। .. जैन-दर्शन के अनुसार वायु-प्रदूषण अग्निकाय जीवों की हिंसा का कारण है क्योंकि वातावरण में करोड़ों टन धुआं, रेत आदि छोड़े जा रहे हैं। महावीर ने कहाअग्निकायिक जीवों को पीड़ित करना स्वयं अपने को ही उत्पीड़ित करना है। निश्चय ही अग्निकाय की इस विनाशलीला को जानने वाला संयमित जीवन जीने लगता है
और जो असंयमित है वह जानते हुए भी इस विनाशलीला को आमंत्रण देता है। वनस्पति प्रदषण के सम्बन्ध में जैन दर्शन का मानना है कि वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा का परिणाम है- भूक्षरण तथा भूस्खलन, जिनसे कई देश कालकवलित होते जा रहे हैं। आक्सीजन नष्ट हो रहा है। जैन श्रावकों के दैनिक कार्यों में नाना प्रकार के वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा से विरत रहने को कहा गया है-वृक्षों को काटकर उनसे आजीविका करना (वणकम्म), लकड़ी काटकर कोयला बनाना (इंगालकम्म), आदि अनेक व्यवसायों से उन्हें विरत रहने को कहा गया है। जैन दर्शन मानता है कि जिसप्रकार मानव शरीर जन्म लेता है, विकसित होता है उसीप्रकार वनस्पति भी जन्म लेती है और उसका भी विकास होता है। मानव की भांति वनस्पति भी संगीत, ओम और सहानुभूति को स्वीकार करती है। जैसे शरीर सचित्त है वैसे ही वनस्पति भी सचित्त है। अत: जैन परम्परा का पर्यावरण विज्ञान यह मौलक सूत्र प्रस्तुत करता है कि विश्व में केवल मेरा ही अस्तित्व नहीं है अपितु औरों का भी अस्तित्व है।