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________________ 12 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 1, जनवरी-मार्च, 2016 मानोन्नयन, चोरार्थदान), सत्य ( मिथ्योपदेश, असत्यदोषारोपण, कूटलेखक्रिया, न्यास उपहार, मन्त्रभेद), स्वदार संतोष (इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीड़ा, परविवाहकरण तथा कामभोगतीव्र अभिलाषा) एवं इच्छापरिमाण (क्षेत्र एवं वस्तु परिमाण, हिरण्य - सुवर्ण के परिमाण का अतिक्रमण, द्विपद- चतुस्पद परिमाण का उल्लंघन, धनधान्यसीमा - रेखा अतिक्रमण आदि), तीन गुणव्रत भोगोपभोगपरिमाण, दिव्रत, अनर्थदण्डविरमण तथा ४ शिक्षाव्रतों - सामायिक, देशावकाशिक, प्रोषधोपवास एवं अतिथि संविभाग के पालन का विधान किया गया है। अपने संयम और सम्यक् आचरण से इस षट्कायिक पर्यावरणीय संहति की रक्षा जैन धर्म का मूल उद्देश्य है। सम्पूर्ण सृष्टि पंचमहाभूत अर्थात् पंचतत्त्वों से विनिर्मित है। अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु और आकाश। यही किसी न किसी रूप में जीवन का निर्माण करते हैं, इसे पोषण देते हैं। इन सभी पांचों तत्त्वों में जीवन का अस्तित्व मानना जैन दर्शन की अपनी एक विशिष्ट स्वीकृति है। इसलिए सूक्ष्म जीव की हिंसा से बचने के लिए जैन-धर्म जितनी गहराई से विचार किया है उतना अन्य किसी धर्म ने नहीं किया। जैन दर्शन में नवकोटि अहिंसा पालन का विधान है। हिंसा क्या है - प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणम् हिंसा' १६ अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों के वशीभूत होकर दस प्राणों (पंच ज्ञानेन्द्रिय, तीन योग, एवं श्वासोच्छ्वास) वाले जीव को काटना, छेदना, मारना हिंसा है। द्रव्य हिंसा एवं भाव हिंसा, हिंसा के दो मुख्य भेद है। जैन धर्मदर्शन का मानना है कि व्यक्ति के जीवन यापन में कम से कम प्राणियों का घात होना चाहिए। इसलिये मानव का प्रयास होना चाहिये कि वह यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक बोले, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक ठहरे, यत्नपूर्वक सोये, यत्नपूर्वक भोजन करे और संयमपूर्वक रहे ताकि उससे पापकर्म का बन्धन न हो। उसकी यह अहिंसक भावना जैनागम दशवैकालिक में स्पष्ट है 'जयं चरे जयं चिट्ठे, जयं मासे, जयं सये। जयं भुंजतो भासतो पावकम्मं ण बन्धइ । । १७ अर्थात् व्यक्ति यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक ठहरे, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोये, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक बोले तो इस प्रकार के जीवन से यह पापकर्म को नहीं बाँधता है एवं पर्यावरण संरक्षण में भी सहयोग देता है। पाश्चात्य विकासवादियों ने जहां संघर्ष और योग्यतम की विजय (Survival of the fittest) का सिद्धान्त दिया वहीं जैनों का स्पष्ट उद्घोष है - 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् १८
SR No.525095
Book TitleSramana 2016 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2016
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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