SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय दार्शनिक परम्परा में पारिस्थितिकीः जैन परम्परा के विशेष सन्दर्भ में 11 में षट्काय जीवनिकाय के संरक्षण की बात प्रमुखता से कही गयी है। आचारांग के अनुसार ‘सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं'१२ अर्थात् सभी प्राणी जीना चाहते हैं कोई मरना नहीं चाहता। सभी प्राणियों को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है। 'सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्ख पडिकूला'१३। अत: किसी भी जीव की, किसी भी प्रकार अर्थात् नौ कोटियों से (मन, वचन, काया से न करे, न करवाये, न करने वाले का अनुमोदन करे) हिंसा नहीं होनी चाहिए। जैन नीतिशास्त्र में जीव के बद्ध और मुक्त दो प्रमुख विभाग किये गये हैं। मुक्त जीव तो संसार प्रक्रिया से परे हैं। बद्ध के त्रस और स्थावर दो प्रकार के होते हैं। स्थावर के पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय -संसारिणस्त्रसस्थावराः। पृथिव्यपतेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा:१४ ये पांच तथा त्रस के आठ भेद बताये गये हैं अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूर्छिम, उद्भिद और उपपातज (कुम्भी आदि)। त्रस जीव में चैतन्य व्यक्त होता है तथा स्थावर में अव्यक्त। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ये ४ भेद त्रस जीवों के हैं। स्थावर आत्मा के पृथ्वी, जल, तेज, वाय एवं वनस्पति पांच भाग किये गये हैं जो एकेन्द्रिय होते हैं। इस प्रकार कुल छः जीव निकाय जैन नीतिशास्त्र में मान्य है। चेतन जीवों के लिये जैन दर्शन की यह सूक्ष्म दृष्टि उसके जीवों के प्रति संरक्षण एवं उत्कृष्ट भाव को दर्शाती है। महावीर ने स्पष्टतः जोर देकर पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति और त्रसकाय को साक्षात् प्राणधारी जीव निर्देशित किया। इनमें भी जीव माना। विज्ञान ने सर जगदीश चन्द्र बोस की खोज के आधार पर वनस्पतियों को जीव मानना प्रारम्भ किया। किन्तु जैन दर्शन तो अपनी स्थापना के समय से ही षट्जीव निकाय में जीवन मानता है अर्थात् पृथ्वी, वायु, जल, वनस्पति, अग्नि आदि सभी में जीवन मानते हुए उनकी किसी भी रूप में हिंसा की निन्दा करता है। 'समवायांगसूत्र'१५ में सत्रह प्रकार के संयम बताए गए है- पृथ्वीकाय संयम, अपकाय संयम, तेजस्काय संयम, वायुकाय संयम, वनस्पतिकाय संयम, द्वीन्द्रिय जीव संयम, त्रीन्द्रिय जीव संयम, अज़ीवकाय संयम, प्रेक्षा संयम; उपेक्षा संयम, अपहृत्य संयम, वचन संयम और काय संयम। अत: स्पष्ट है कि जैन दर्शन प्रकृति के सूक्ष्मतम जीवों से लेकर विशालकाय जानवरों एवं अजैविक तत्त्वों के भी संरक्षण के सिद्धान्त का पक्षधर है। साधु वर्ग एवं श्रावक वर्ग के लिए पर्यावरण शुद्धि हेतु जैन दर्शन में विशिष्ट आचार संहिता बनायी गयी है। श्रमणों के लिए पंचमहाव्रत का कठिन पालन तथा गृहस्थों के लिए बारह व्रतों (५ अणुव्रत-, अहिंसा (बन्ध, वध, छविच्छेद, अधिभारारोपण, भक्तपानव्यवच्छेद), अस्तेय (स्तेनप्रयोग, हीनाधिक्य
SR No.525095
Book TitleSramana 2016 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2016
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy