SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 1, जनवरी-मार्च, 2016 बौद्ध दर्शन में करुणा और दया को केन्द्र में रखकर किसी भी प्रकार की हिंसा का सर्वथा निषेध करते हुए प्राणिमात्र के प्रति प्रेम एवं सौहार्द की भावना को प्रतिष्ठित किया गया है जो भगवान बुद्ध की पर्यावरण के प्रति चिन्ता और प्रेम को दर्शाता है। जैनों के पंचमहाव्रत की तरह गौतम बुद्ध ने प्रज्ञा, शील और समाधि को बौद्ध आचार के मौलिक सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित किया तथा निर्वाण-प्राप्ति के लिये इन्हें आवश्यक माना। शील के अन्तर्गत-पंचशील की प्रतिष्ठा की गयी जिसमेंपाणातिपात वेरमणी, अदिनादान वेरमणी, मुसावाद बेरमणी, अब्रह्मचरिय वेरमणी तथा सुरा-मेरेय-मज्ज पमादट्ठाण वेरमणी के सिद्धान्त का पालन बौद्ध भिक्खुओं को तथा श्रावकों के लिये आवश्यक माना गया। अपने धम्मचक्कपवट्टनसुत्त में बुद्ध ने अनेक स्थलों पर मानव को प्रकृति तथा उसमें व्याप्त जीवों के प्रति दया और करुणा का भाव रखते हुए हिंसा से विरत रहने को कहा है। 'चरित्त भिक्खवे चारीकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकम्पाय' जैसे सुत्त उनकी इसी प्रतिबद्धता को परिपुष्ट करते हैं। मीमांसा दर्शन में यज्ञों में प्रयुक्त हवन सामग्री, हविष एवं घृत आदि से पर्यावरण की शुद्धि का उल्लेख मिलता है। वैदिक ऋषि कहता है- 'आजुहोता हविषा मर्जयध्वम्' अर्थात् तुम अग्नि में शोधक द्रव्यों की आहुति देकर वायुमण्डल शुद्ध करो। वर्तमान विज्ञान भी यज्ञों की आहुति से समुत्पन्न धुयें को हानिकारक वायुमण्डलीय जीवाणुओं को नष्ट करने में कारक मानता है। जैन अध्यात्म और पर्यावरण अब यदि हम पर्यावरणीय नीति को जैन अध्यात्म शास्त्र के आलोक में देखें तो हम पाते हैं कि जैन धर्म में बड़ी गहनता से पर्यावरणीय समस्याओं पर विचार-विमर्श हुआ है। जैन धर्म निवृत्तिवादी परम्परा का प्रतिनिधि दर्शन होने के कारण उसका उच्चतम आदर्श मोक्ष तो है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह वैश्विक एवं सामाजिक समस्याओं से सरोकार नहीं रखता। जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव पर्यावरण के प्रथम संवाहक महापुरुष थे। उन्होंने असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और कला का सिद्धान्त दिया। उन्होंने पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति में जीव की अवधारणा दी और पर्यावरण की परिधि को असीमित कर दिया। जैन दर्शन के अनुसार सारा पर्यावरण अनन्त जीवों से आपूर है। अतः किसी भी रूप में उनकी हिंसा पर्यावरण के प्रदूषण को उत्पन्न करेगा। महावीर ने 'जीओ और जीने दो' का सिद्धान्त दिया। उनके द्वारा उपदेशित आचारांग जो जैन साहित्य का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है,
SR No.525095
Book TitleSramana 2016 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2016
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy