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________________ हम भूल जाते हैं कि धार्मिक होने की पहली शर्त है- मानव होना। मानवता का अर्थ है- मनुष्य में विवेक विकसित हो, वह अपनी भावनाओं और हितों पर संयम रख सके तथा अपने साथी प्राणियों के साथ परस्पर सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझ सके- परस्परोपग्रहोजीवानाम्। धर्म हमारे जीवन को संस्कारित करने के लिये आवश्यक है किन्तु धर्म की प्रज्ञा से, विवेक से समीक्षा की जानी चाहिये। जैन दर्शन कहता है- 'पण्णा समिक्खये धम्म' । आज धार्मिक उदारता और सहिष्णुता के लिये श्रद्धा को विवेक से समन्वित किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। जैन दर्शन में धार्मिक सहिष्णुता का आधार उसका अनेकान्तवाद का सिद्धान्त है जो वस्तु को अनन्तधर्मात्मक मानते हुये इस बात पर बल देता है कि वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में हमारा ज्ञान और कथन दोनों सापेक्ष होता है। एक समय में वस्तुतत्त्व को सम्पूर्ण रूप से न जान पाने के कारण हमारा ज्ञान आंशिक होता है और आंशिक दृष्टिकोणों पर आधारित सापेक्ष ज्ञान को, अपने से विरोधी मन्तव्यों को असत्य कहकर नकारने का कोई अधिकार नहीं है। यह कहना कि मेरी दृष्टि ही सही है, सत्य केवल मेरे ही पास है, सरासर गलत है। जैन आगम सूत्रकृतांग स्पष्टत: कहता है कि जो केवल अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों के मतों की निन्दा करते हैं, अथवा उनके प्रति विद्वेष भाव रखते हैं, वे सदैव संसार-चक्र में परिभ्रमित होते रहते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जब सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष रूप से दूसरे सत्यों का निषेधक मान लिया जाता है तो वह असत्य बन जाता है। जो सापेक्ष है वह अपनी सत्यता का दावा करते हुये भी दूसरे की सत्यता का निषेधक नहीं हो सकता। सत्य के सन्दर्भ में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जो विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों की सापेक्ष सत्यता और मूल्यवत्ता को स्वीकार कर उनमें परस्पर सौहार्द और समन्वय स्थापित कर सकता है। जैन परम्परा का नवकार मन्त्र अपने आप में धार्मिक सहिष्णुता का अनुपम उदाहरण है जिसमें सभी अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय के साथ -साथ सभी साधुओं को नमस्कार किया गया है चाहे वे किसी धर्म, सम्प्रदाय, जाति या वर्ग के हों। जैन आचार्य हेमचन्द्र ने जैन परम्परा में रहते हुये न केवल 'महादेवस्तोत्र' की रचना की बल्कि स्वयं शिव मन्दिर में जाकर शिव की वन्दना करते हुये कहा कि जिसने संसार भ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष आदि तत्त्वों को क्षीण कर लिया है, वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन, मैं उसे प्रणाम करता हं। अत: जैन धर्म-दर्शन में असहिष्णुता को कोई स्थान नहीं है। जैन धर्म-दर्शन के सिद्धान्तों को आत्मसात किया जाय तो वे मानव में धार्मिक सहिष्णुता, शान्ति, समभाव और समन्वय का विकास करने में अति कारगर सिद्ध होंगे।
SR No.525094
Book TitleSramana 2015 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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