________________
जमीकंद की ग्राह्यता-अग्रता का प्रश्न : 9 निर्धारण करते हैं कि यह हिंसा अनुचित है या उचित, ज्यादा है या कम, अप्रासंगिक है या प्रासंगिक। पहले गुजरात में स्थित जैन संप्रदायों के अलावा भारत की कोई भी जैन परम्परा ऐसी नहीं थी जो जमीकंद का प्रयोग नहीं करती थी या जिसके प्रत्येक साधु-साध्वी सम्पूर्ण रूप से जमीकंद के त्यागी हों तथा आज भी ऐसा कोई सम्प्रदाय नहीं है। हाँ आजकल एक-दूसरे के प्रभाव में आकर कैसी भी प्ररूपणा कर दें पर वास्तविकता से सभी सम्प्रदाय परिचित हैं। अन्त में छोटी-सी उपमा प्रस्तुत हैएक व्यक्ति ने जरा-सी चिंगारी जलाई, दूसरे ने विशाल अग्निपुंज बुझाया, जीवों की संख्या की दृष्टि से पहले ने कम जीव अपने हाथ से मारे व दूसरे ने ज्यादा मारे, पर आगम ने पहले को अधिक आरम्भी माना तथा दूसरे को अल्पारम्भी माना। कारण स्पष्ट है कि पहली क्रिया से विध्वंस बढ़ता है, दूसरी से रुकता है। इस तरह प्रत्येक वनस्पति के अधिक प्रयोग से प्रकृति और पर्यावरण की जीवन श्रृंखला ज्यादा टूटती है जबकि साधारण से कम। पुनः एक बात सूचित करना आवश्यक है कि लेखक का लक्ष्य किसी जमीकंद के खाने वाले का समर्थन करना नहीं है, न ही उनसे बने व्यजनों का स्वाद ही उसे लुभाता है। जमीकंद के प्रयोग करने वाले ऐसे-ऐसे मुनिराज हैं जो मिठाई, नमकीन, मेवा, मुरब्बा, खीर, हलवा, घी आदि विविध स्वाद पदार्थों के परिपूर्ण त्यागी होते हैं। वस्तु का त्याग या अत्याग महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्व केवल इस बात का है कि किसी एक मुद्दे को भावुक बनाकर सामान्य-जन को गुमराह न किया जाए, न ही उसकी निगाह में संत-सतियों को शिथिलाचारी आदि की संज्ञा दी जाए। किसी भी वस्तु का त्याग हमें आनन्द देता है पर यह हीनता और उच्चता की ग्रंथि का निर्माण न कर जाए। जमीकंद के त्याग को हम संतोष व तपस्या की दृष्टि से बड़ा मान सकते हैं पर अहिंसा की दृष्टि से उतना महत्त्वपूर्ण नहीं लगता। संदर्भ :
दशवैकालिक सूत्र, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, राजस्थान, पंचम अध्ययन, सूत्र १३८, पृ० १९१ आचारांग सूत्र, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, राजस्थान, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, प्रथम अध्ययन, उद्देशक ८, सूत्र ३७५-८८, पृ० ८२-८५
१.
२.