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जैन आचार का स्वरूप एवं लक्ष्य
डॉ. अनिल कुमार सिंह जैनशास्त्र से तात्पर्य उस शास्त्र से है जिसका प्रणयन विद्वान्-मुनियों ने जैन परम्परागत चौबीस तीर्थंकरों के उपदेश उनके साक्षात् शिष्य गणधरों से ग्रहण कर किया है। इस बात में किसी संदेह की गुंजाइश नहीं है कि ऋषभ आदि चौबीस तीर्थकर ऐतिहासिक पुरुष हैं। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा की सिन्धु सभ्यता जैन संस्कृति की प्राचीनता पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। सिन्धु सभ्यता का समय ई.पू. ३००० माना जाता है। मोहनजोदड़ो के घरों में वेदिका का अभाव दिखाई देता है। साथ ही वहाँ पर बहुत से नग्न चित्र तथा नग्न मूर्तियाँ भी मिली हैं जिन्हें तपस्वी योगियों के चित्र अथवा मूर्तियाँ माना जा सकता है। मूर्त्तिवाद और नग्नता जैन संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ
चौबीस जैन तीर्थंकरों ने कठोरतम तपस्या के द्वारा आत्म-कल्याणार्थ केवलज्ञान प्राप्त कर मानव जीवन का लक्ष्य निरूपित किया तथा उसकी जानकारी जन-जन तक पहुँचायी। बाद में अन्य विद्वान् मुनियों द्वारा उनके उपदेशों को सुबोध भाषा में लिपिबद्ध कर संकलित किया गया और उनकी व्याख्यायें भी प्रस्तुत की गयीं। जैन-आचार का आधार जैन परम्परा की आचार-संहिता का आधार आत्मा है। जबतक आत्म-साक्षात्कार नहीं होता तबतक श्रद्धापूर्वक आत्मा के अस्तित्व की स्वीकृति आचार के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व की स्वीकृति हो जाने एवं संसारावस्था में कर्म के कारण उसका परिभ्रमण हो रहा है, जब यह तथ्य अवगत हो जाता है, तब साधना का प्रारम्भ हो जाता है। जैनाचार की विशेषता जैनाचार की प्रमुख विशेषता समता है- 'समियाए धम्मे। जो समतावान होता है, वह पापकारी प्रवृति नहीं करता है। वस्तुत: राग-द्वेष रहित कर्म ही आचार है। समता दो प्रकार की है- स्वनिश्रित और परनिश्रित। राग और द्वेष के उपशमन के द्वारा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में संतुलित अनुभूति करना स्वनिश्रित समता है। सब प्राणी सुख के इच्छुक और दुःख के विरोधी हैं, इसलिए कोई भी वध के योग्य नहीं है, यह आत्मतुला परनिश्रित समता है। स्वनिश्रित समता की सिद्धि के लिए महावीर ने कषाय के उपशमन का उपदेश दिया है, परनिश्रित समता की सिद्धि के लिये