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________________ जैन आचार का स्वरूप एवं लक्ष्य : 55 प्राणातिपात आदि पापों से विरत होने का उपदेश दिया है। * ४ जैनाचार की पूर्व भूमिका ज्ञान है। ज्ञान शून्य आचार को यहाँ कोई महत्त्व प्राप्त नहीं है। अहिंसा की अनुपालना ज्ञानपूर्वक ही सम्भव है। 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष : ' ज्ञान एवं क्रिया का समन्वय ही परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। मोक्ष की प्राप्ति न केवल ज्ञान से हो सकती है और न ही कोरे आचरण से। दोनों की युति अत्यन्त अपेक्षित है। ५ आचार के प्रकार जैन परम्परा में आचार की अवधारणा पर व्यापक विचार किया गया है और उसका सम्बन्ध ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं वीर्य के साथ भी स्थापित किया गया है। इसके पाँच प्रकार बताये गये हैं- १. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार, ३. चारित्राचार, ४. तपाचार और ५. वीर्याचार | ६ १. ज्ञानाचार :- ज्ञानाचार का तात्पर्य श्रुतज्ञान विषयक आचरण है। यद्यपि मति, श्रुत, आदि पांच ज्ञान हैं, किन्तु व्यवहारात्मक ज्ञान केवल श्रुतज्ञान ही है। मति, अवधि, मनःपर्याय एवं केवलज्ञान ये चार ज्ञान असंव्यवहार्य है। " हमारा सारा व्यवहार श्रुतज्ञान के आधार पर ही चलता है। श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष ज्ञान शब्दातीत हैं, अतः वे अपने स्वरूप का विश्लेषण करने में असमर्थ हैं। असमर्थता के कारण ही अनुयोगद्वार में इनको स्थाप्य कहा है। चूर्णिकार एवं टीकाकार के | अनुसार स्थाप्य का अर्थ असंव्यवहार्य है।' जिसका दूसरों के लिए उपयोग हो सके, `वह व्यवहार्य होता है। श्रुतज्ञान शब्दात्मक है, इसलिए वह संव्यवहार्य और लोकोपकारक है। श्रुतज्ञान का आदान-प्रदान हो सकता है, अतः ज्ञानाचार श्रुतज्ञान से ही सम्बन्धित है। इसके आठ प्रकार हैं- काल, विनय, बहुमान, उपधन, अनिह्नवन, व्यंजन, अर्थ और सूत्रार्थ | " १० आचार का उल्लंघन अतिचार होता है और अतिचार का वर्जन आचार । जो अनुष्ठान, जिस विधि से करना होता है, उसको अन्यथा प्रकार से करना अथवा न करना, उस अनुष्ठान का अतिचार होता है। ज्ञान आदि पंचाचारों के भी अतिचार का वर्णन जैन साहित्य में उपलब्ध होता है। " आवश्यक में ज्ञान के चौदह अतिचारों के उल्लेख मिलते हैं। १- व्यविद्ध, २- व्यत्याम्रेडित, ३ - हीनाक्षर, ४- अत्यक्षर, ५पदहीन, ६ - विनयहीन, ७- घोषहीन, ८- योगहीन, ९- सुष्ठुदत्त, १०- दुष्ठुप्रतीच्छित, ११- अकाल में स्वाध्याय करना, १२ - स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय न करना, १३- अस्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय करना और १४ - स्वाध्याय की -
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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