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________________ : 25 कषाय संलेखना, काय-संलेखना की अनिवार्य पूर्वावस्था है क्योंकि जब तक रागद्वेष क्षीण नहीं होते, तब तक काय-संलेखना की कोई सार्थकता नहीं है। काम का कृशपना तो रागी, दरिद्र, पराधीनतागत मिथ्यादृष्टि को भी हो जाता है। देह को कृश करने के साथ राग-द्वेष मोहादि को कृश करके इहलोक-परलोक सम्बन्धित समस्त वांछा का अभाव करके, देह के मरण में, कुटुंब-परिग्रह आदि समस्त परद्रव्यों से ममता छोड़कर परम वीतरागता से संयम सहित मरण करना, कषाय संलेखना है। जो विषय कषायों को जानकर उनका वोसिरण (विसर्जन) करेगा, उसी में समाधिमरण घटित होगा, जो विषय कषायों के आधीन है, उनमें ही गृद्ध है, उसको समाधिमरण नहीं होता है। २. काय-संलेखना - काय संलेखना का अर्थ है- काया को सम्यक् प्रकार से कृश करना। जब साधक के कषाय क्षीण होते हैं तब वह शरीर से तपोरत रहने के कारण काय संलेखना तप की आराधना करता है। निज कृत अतिचारों एवं अनाचारों के प्रायश्चित्त का साधक जो तप अंगीकार करता है, वह काय-संलेखना तप है। यह तप भी दो प्रकार का है। १. अद्धानशन - इसमें काल मर्यादा के अंतर्गत उपवास रखते हुए मर्यादापूर्वक भोजन का त्याग किया जाता है। २. सर्वानशन - इसमें मरणपर्यंत समस्त आहार का त्याग किया जाता है। काय-संलेखना तप की विधि - काय-संलेखना तप में साधक जघन्य छ: मास, मध्यम एक वर्ष और उत्कृष्ट बारह वर्ष तक तपाराधना करता है। अपनी मृत्यु को निकट जानकर साधक इस (निम्नोक्त) क्रम में संलेखना तप की आराधना करता है। उत्तराध्ययन सूत्र के ३६ वें अध्याय के अनुसार संलेखना तप का साधक प्रथम चार वर्षों में दूध, घृत आदि विग्गइयों का त्याग करें तथा दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार का तप करे। तदनन्तर दो वर्षों तक एकांतर उपवास और पारणे में आयंबिल करे। इसके पश्चात् . ११ वें वर्ष के प्रथम छ: महीनों तक कोई विशिष्ट तप (तेला, चोला आदि) न करे। इसके पश्चात् छ: माह तक उत्कृष्ट तप (बेला, तेला आदि) करे। इस पूरे वर्ष में पारणे में आयंबिल करे।
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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