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________________ 24 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 संथारा किसी के दबाव से किया ही नहीं जा सकता। चूँकि युवावस्था में चिता पर जीवित सोना सरल कार्य नहीं होता, अत: सती क्रिया के दौरान ऊँची-ऊँची आवाज में ढोल बजाए जाते थे ताकि अग्नि लगने पर तड़पती चीखती 'त्राहि माम्' पुकारती नारी के करुण स्वर किसी को सुनाई न दें। ऐसी वीभत्स प्रथा से कभी भी संथारे की पवित्र क्रिया को उपमित नहीं किया सकता। संलेखना तप संथारा से पूर्व संलेखना तप की आराधना की जाती है। संलेखना तप का अर्थ है ऐसी तप प्रणाली जिससे साधक अपने कषायों को सम्यक् प्रकारेण कृश करे। 'सम्' का अर्थ उत्कृष्टता से, सम्यक् रीति से तथा लेखना का अर्थ देखना तथा पेंसिल को छीलने की तरह पतला करना। यहाँ संलेखना तप में दोनों तरह के अर्थ घटित होते हैं। क्योंकि यह संलेखना दो भेदों वाली होती है- एक कषाय संलेखना और दूसरी काय संलेखना। १. कषाय-संलेखना तप - आध्यात्मिक दोष जो चार प्रकार के बताए गए हैंक्रोध-मान-माया-लोभ, इन कषायों का सम्यक् निरीक्षण करना, अपने भीतर रहे कषायों के कारणों को खोजना, उनका विज्ञान जानना, उनकी परिणति को पहचानना, उनकी भिन्न-भिन्न प्रकृतियों का आंतरिक रूप से विश्लेषण करना और उनका वोसिरण (विसर्जन) करना कषाय-संलेखना तप है। इस तप में साधक यथा संभव निरन्तर षडावश्यक की आराधना में उपस्थित रहता है। अपने जीवन भर में किए गए समस्त पापों एवं दोषों का प्रतिक्रमण-निरीक्षण, गर्हा एवं 'अप्पाणं वोसिरामि' (आत्म विसर्जन) करता है। इस तप-प्रक्रिया में साधक आत्मविलोचना करता हुआ अपने गुरु अथवा आचार्यादि के सम्मुख बिना कुछ भी छिपाए अपने अपराधों एवं दोषों को प्रकट करता है, गर्हा (confession) करता है। गुरु से प्रायश्चित्त विधि ग्रहण करता है और तब भावशुद्धि के द्वारा कषाय संलेखना तप के साथ-साथ काय संलेखना तप भी ग्रहण करता है। कषाय संलेखना तप द्वारा साधक जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, सुखदुःख, राग-द्वेष आदि समस्त द्वन्द्वों का निराकरण करता हुआ समत्वयोग को धारण करता है। समता की आराधना से कषाय कृश होते हैं और कषाय क्षीण होने से चेतना कर्मभार से हल्की होकर ऊर्ध्वगामी होने लगती है। इस प्रकार कषायों का प्रतिक्रमण, निरीक्षण,गर्दा एवं विसर्जन ये (प्रत्याख्यान एवं प्रभुपासना सहित) षडावश्यक, कषाय संलेखना तप है। कषाय प्रतिसंलीनता रूप कर्म निर्जरा का उपक्रम है।
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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