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________________ 26 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 वह संलेखनाधारी बारहवें वर्ष में कोटि सहित अर्थात् निरंतर आयंबिल तप करके एक पक्ष या एक मास का आहार त्याग रूप तप करे। इस प्रकार निरंतर काय-संलेखना तप के द्वारा साधक क्षीणकाय और क्षीणकषाय होने पर समाधिपूर्वक मरण को प्राप्त होता है और ऐसा समाधिवंत, शीलवान साधक सुलभ बोधि होकर अपने संसार को सीमित कर लेता है। ज्यादा से ज्यादा १५ भव, मध्यम ३ भव और उत्कृष्ट उसी भव में वह आत्मा इस संसार चक्र से मुक्त हो जाता है और परिनिर्वाण को प्राप्त करता है। संथारा कोई बाह्य आचार-साधना नहीं वरन् भीतरी अपूर्व घटना है। अक्सर ऐसे लोगों को देखा गया है जो जीवन भर से सुनते आए हैं कि संथारा आए तभी जीवन सफल होता है, संथारा आए तभी कल्याण होता है, संथारा आए तभी मोक्ष होता है, वे लोग अपने परिजनों को कहकर रखते हैं कि जब भी मेरी मृत्यु का समय आए, मुझे संथारा पचक्खा (प्रत्याख्यान करवा देना) देना। मैं जीवन से यूँ ही खाली हाथ न लौट जाऊँ। अत: मैं होशो हवास में रहूँ या ना रहूँ किन्तु आप लोग मेरे मृत्यु एवं बीमारी को जानकर संथारा पचक्खा देना। अक्सर ऐसे करुणाशील सहृदय लोग रात सोने से पहले भी संथारा पाठ बोलकर सोते हैं और जब मृत्यु का समय आया हुआ सा प्रतीत होता है, तब या तो वे स्वयं, अथवा होशो हवास में न हो तो उनके परिजन उन्हें संथारा पचक्खा देते हैं और आहारादि के त्यागपूर्वक वे लोग मृत्यु को प्राप्त भी हो जाते हैं। ये सारी भावनाएँ अच्छी बातें हैं, लेकिन कोई बाहरी पच्चक्खान (प्रत्याख्यान) ग्रहण मात्र को ही संथारा समझ रहा है, तो वह उसकी भूल ही होगी। ठीक वैसे ही जैसे वेश परिवर्तन को कोई साधुत्व समझ लें। हाँ लोग महिमामण्डित कर देंगे, बड़े जोर-शोर से प्रचार-प्रसार भी होगा, जनता दर्शनों को आया करेगी, अखबारों में फोटो छपने लगेगी और यदि वह जीवात्मा भाव पूर्वक सम्यक् संथारा में उपस्थित नहीं है तो द्रव्य क्रिया का द्रव्य फल (यश लाभ) प्राप्त कर फिर आत्म प्रवंचना का ही शिकार बना रहेगा। ऐसी भ्रमपूर्ण घटनायें अक्सर इस समाज में घटित होती ही रहती हैं। घटनाओं को यथारूप उपस्थित करना अच्छी बात है, किन्तु उसे सामने वाले को मानने और स्वीकार करने के लिए बाध्य करना, या वैसा आग्रह करना अपने आप में आरंभ है, अहं चेष्टा है। संथारा आहार - शरीर - उपधि का त्याग मात्र ही हो, ऐसा नहीं है। यह तो उपलक्षण हैं, बाईप्रोडक्ट हैं, मूल बात तो यह है कि साधक अपनी मृत्यु का समभाव में साक्षात्कार करे। अपनी प्राणधारा को उर्ध्वगमित करे और अपने समग्र अतीत से निर्लेप - नि:संग हो जाए।
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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