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________________ 22 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 ग्रहण करनेवालों के मन में किसी के प्रति आक्रोश या असंतोष नहीं होता, न ही उसकी वाणी में किसी से गिला-शिकवा होता है, न किसी के प्रति दुव्यर्वहार होता है, इसी कारण परिवार और समाज में भी उस महान् आत्मा के प्रति अतिशय श्रद्धां एवं आदर का भाव होता है। भले ही वे मोहवश उस व्यक्ति को संथारा स्वीकार करने से रोकें पर उसके उस फैसले से वे अपने को ठगे, प्रपीड़ित या वंचित महसूस नहीं करते। वे उसकी अन्तिम घड़ियों में अधिकाधिक शान्ति और समाधि का योगदान देने को उत्सुक रहते हैं। अपने शोक के आवेश को भी रोकने का प्रयास करते हैं ताकि संथारालीन व्यक्ति अपने सम्बन्धियों के दुःख से आकुल-व्याकुल न हो । पारिवारिक जन वियुज्यमान आत्मा की भाव स्थिरता के लिए भगवद्-भक्ति के गीत गाते हैं, आगम पाठ सुनाते हैं, नमस्कार मंत्र पढ़ते हैं तथा निरन्तर अध्यात्ममय वातावरण बनाने को समुद्यत रहते हैं। उनके मन में ये भाव उमड़ते हैं कि इस आत्मा को अपना ध्येय प्राप्त हो तथा कभी अवसर आए तो हम भी इसका अनुसरण कर अपनी जीवनलीला को ऐसे ही समेटें। परिवार और समाज उस व्यक्ति के उस महान् पराक्रम से स्वयं को लांछित नहीं, गर्वित अनुभव करता है। उनके मन में उसके प्रति कोई शिकायत, बगावत, विक्षोभ, विद्रोह या असंतोष का भाव नहीं रहता, केवल अहोभाव ही उनके मन में तैरता है। संथारे से समाज उपकृत होता है और आत्महत्या से समाज अपकृत एवं तिरस्कृत होता है इसलिए इन दोनों में कोई साम्य नहीं है । संथारा सृष्टि का सौन्दर्य है तो आत्मघात इसका रौरव रूप है। संथारे की शृंखला जैन धर्म में तो अविच्छिन्न रूप से चलती ही रही है, अन्य धर्मों में भी संथारे का प्रावधान है। वैदिक ग्रंथों में मनुस्मृति में प्रायोपवेशन का विधान है। जैन धर्म उनके भावों को मान्य करते हुए भी तत्तत् विधि से सहमत नहीं रहा है, क्योंकि पहले तो उन प्रायोपवेशनों के पीछे स्वर्गादि की अभिलाषा छिपी रहती है, दूसरे उनमें जल, अग्नि, विष आदि जीवन नाशक साधनों का प्रयोग किया जाता है जो कि संथारे में बिलकुल निषिद्ध है। जैनेतर साधकों में श्री विनोबा भावे का संथारा एक आदर्श के रूप में पेश किया जा सकता है । उन्होंने इस संथारे की स्थिति तक पहुँचने से पहले वर्षों तक इस विषय में अध्ययन, मनन और चिन्तन किया, जैन मुनियों के संथारे को देखा, तपस्वी मुनि श्री जगजीवन राम जी महाराज, श्री जिनेन्द्र वर्णीजी जैसे प्रबुद्ध जैन साधकों से मार्गदर्शन लिया। फिर उन्होंने ९ नवम्बर १९८२ को जीवन पर्यन्त के लिए आहार पानी का परित्याग कर दिया। तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी सहित तमाम राष्ट्रनेताओं ने विनोबाजी से पानी, ग्लूकोज या फलों का रस लेने की विनती की, फिर भी उन्होंने उस पर ध्यान नहीं दिया। प्रस्तुत प्रसंग के संदर्भ में आधुनिक संथारा - विरोधियों से एक प्रश्न पूछा जा सकता है कि
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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