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पवित्र परम्परा संथाराः एक संक्षिप्त चर्चा : 21 तमन्ना रहती है और न ही मृत्यु की आकांक्षा। उसके लिए जीने और मरने की दोनों ही घटनाएँ बराबर हैं। उपासकदशांग, आवश्यकसूत्र तथा तत्त्वार्थसूत्र में संथारे में आसीन व्यक्ति के लिए पाँच प्रकार की अभिलाषाओं से मुक्त होने को कहा गया है- 'इहलोगासंसप्पओगे', ‘परलोगासंसप्पओगे', 'जीवियासंसप्पओगे', 'मरणासंसप्पओगे', 'कामभोगासंसप्पओगे', अर्थात् इस जन्म में सुख प्रतिष्ठा मिले यह कामना नहीं करनी, अगले जन्म में स्वर्ग, अप्सराएँ, चक्रवर्ती आदि पद प्राप्त हो जाएं, यह कामना भी नहीं करनी, चारों ओर सम्मान बढ़ रहा है इसलिए मैं और अधिक देर तक जीता रहूँ, यह भावना भी नहीं करनी तथा बढ़ती हुई शारीरिक वेदना या पारिवारिक उपेक्षा से जल्दी मरने की इच्छा भी नहीं करनी तथा किसी भी प्रकार के लौकिक काम-भोग की लालसा नहीं करनी। महान् आश्चर्य है कि यद्यपि संथारा मृत्यु में परिणत होने वाली घटना है पर मृत्यु की कामना फिर भी नहीं है। यह है संथारे का धीरज, अनन्तं प्रतीक्षा, बेइन्तहा सब्र और असीम शान्ति। यही कारण है कि संथारे एक पल, एक घण्टा, एक दिन, एक सप्ताह, एक महीने से बढ़ते-बढ़ते तीन-चार महीने भी चलते हैं, फिर भी साधकों के मन में कोई बेचैनी नहीं आती। वे आराम से अपनी जिंदगी का आखिरी वक्त गुजारते रहे हैं। क्या ऐसी पावन, उदात्त संथारे की धैर्य वृत्ति के साथ आत्महत्या की बेचैनी, तात्कालिकता को उपमित किया जा सकता है? कदापि नहीं। वस्तुत: दोनों घटनाएँ अलग-अलग ध्रुवों की संकेतक हैं। ४. परिवार और समाज पर प्रभाव : आत्महत्या के बाद समाज और परिवार का ढांचा एकदम चरमरा जाता है, एक सन्नाटा-सा छा जाता है, हर व्यक्ति अपराध बोध से ग्रस्त हो जाता है तथा मृत व्यक्ति के पीछे तदाश्रित बाल, बच्चे, बुजुर्ग, माता-पिता सदा-सदा के लिए असहाय और निराश्रित हो जाते हैं। उनके पीछे बालक दर-दर की ठोकर खाते हैं, नारियों के लिए जिन्दगी दूभर हो जाती है, वृद्ध मातापिता सेवा के लिए तरस जाते हैं, क्योंकि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति दायित्वहीन होकर संसार से विदा हो गया। उसका यह मरण घोर पलायनवाद है, कायरता है
और परिवार और समाज के प्रति एक गहरा विश्वासघात है। जो उसके कर्त्तव्य थे उन्हें पूरा किए बिना ही वह जिन्दगी को समाप्त कर गया। जबकि संथारा उसी व्यक्ति के लिए विहित है जिसने अपने दायित्व को पूरी तरह निभाया, कभी सेवा, कर्त्तव्यपालन से जी नहीं चुराया तथा जब वह प्रत्येक जिम्मेदारी से मुक्त हो गया, पूर्णकाम हो गया, तब परम धन्यता का अनुभव करता हुआ वह साधक, 'शरीर व आत्मा' के पार्थक्य को समझने के लिए कठोर कदम उठा लेता है। चूंकि संलेखना-संथारा