________________
मध्य-प्रदेश में विदिशा से प्राप्त ऐतिहासिक महत्त्व की जैन मूर्तियां
प्रो. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी डॉ. शान्तिस्वरूप सिन्हा
भारत में प्राचीन काल से धर्म और संस्कृति की तीन धाराएं प्रवाहित रही हैं- वैदिक-पौराणिक (जिसे भूलवश हिन्दू धर्म कह दिया जाता है), बौद्ध और जैन। जैन धर्म निःसन्देह बौद्ध धर्म से प्राचीन और भारतीय संस्कृति के मूल स्वर के अनुरूप उदार एवं परस्परता में विश्वास करने वाला धर्म रहा है। यह धर्म शासकों के साथ ही व्यापारी एवं व्यवसायी वर्गों द्वारा विशेष रूप से समर्थित / पोषित रहा है। इसी कारण जैन कला का वैदिक पौराणिक परम्परा के समानान्तर मन्दिरों एवं देव मूर्तियों तथा अलंकरणों के सन्दर्भ में निरन्तरता में विकास हुआ।
जैन कला एवं स्थापत्य की दृष्टि से मथुरा (उत्तर-प्रदेश) के बाद मध्यप्रदेश का विशेष महत्त्व पुरातात्विक साक्ष्यों से प्रमाणित है। मध्य-प्रदेश में गुप्त काल से ही जैन धर्म के प्रमुख आराध्य देव यानी तीर्थंकरों की मूर्तियों के उदाहरण मिलते हैं, जो मुख्यतः उदयगिरि, विदिशा और नचना से प्राप्त हैं। इनमें विदिशा के दुर्जनपुर नामक स्थान से मिली गुप्त कालीन तीन तीर्थंकर मूर्तियां मध्यप्रदेश की प्राचीनतम ज्ञात जैन मूर्तियां हैं जो ऐतिहासिक महत्त्व की दृष्टि से अप्रतिम हैं। वर्तमान में तीनों तीर्थंकर मूर्तियां स्थानीय विदिशा संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इन मूर्तियों पर गुप्तकालीन लिपि में तिथिरहित अभिलेख हैं जिनमें “महाराजाधिराज रामगुप्त” का नामोल्लेख हुआ है। पूर्व में इन मूर्तियों के अभिलेखों को जी. एस. गाई' ने निष्कर्ष सहित प्रकाशित किया था। ये निष्कर्ष गुप्त शासक रामगुप्त की ऐतिहासिकता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। साहित्यिक साक्ष्यों में रामगुप्त को समुद्रगुप्त का पुत्र एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय का अग्रज बतलाया गया है। परवर्ती साहित्यिक साक्ष्यों (विशाखदत्त के देवीचन्द्रगुप्तम् के परवर्ती सन्दर्भों) एवं रामगुप्त की मालवा (मध्यप्रदेश) से मिली ताम्र-मुद्राओं के आधार पर रामगुप्त को गुप्त शासक के