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36 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 वाले हैं। लेकिन अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान के भेद होते हैं। इसलिए मन:पर्यवज्ञान प्रत्यक्ष को विषय करता है। लेकिन उपर्युक्त प्रसंग में परोक्ष अर्थ का विषय करने वाले अचक्षुदर्शन की प्रत्यक्ष अर्थ का विषय करने वाले मन:पर्यवज्ञान में किस प्रकार से प्रवृत्ति होगी, क्योंकि दोनों का विषय भिन्न-भिन्न है? उत्तर - यदि परोक्ष अर्थ में अचक्षुदर्शन की प्रवृत्ति मान सकते हैं, तो प्रत्यक्ष अर्थ में तो विशेष तरीके से माननी चाहिए, क्योंकि चक्षुदर्शन से जानने योग्य घट आदि रूप प्रत्यक्ष अर्थ उस (घटादि) सम्बन्धी अचक्षुदर्शन में विशेष अनुग्राहक (ग्रहण करने वाला) है। इस कारण यहाँ मनोद्रव्य रूप अर्थ को प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करते हुए मनःपर्यवज्ञान प्रत्यक्ष से युक्त है और अचक्षदर्शन तो परोक्ष अर्थ को ग्रहण करता है इसलिए उसमें (अचक्षुदर्शन) प्रत्यक्षपना नहीं होते हुए भी मन:पर्यवज्ञान का अनुग्राहक होता है।२७ प्रश्न - यदि ऐसा स्वीकार करेंगे तो मनःपर्यवज्ञान को प्रत्यक्ष मानने में विरोध आएगा। उत्तर - जिस प्रकार अवधिज्ञान वाले चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन से परोक्ष अर्थ को प्रत्यक्ष देखते हुए उसके प्रत्यक्षपने में कोई विरोध नहीं आता। उसी प्रकार मन:पर्यवज्ञानी मन:पर्यवज्ञान से मनोद्रव्य की पर्यायों को साक्षात् रूप से जानते हैं और अचक्षुदर्शन से परोक्ष रूप से देखते हैं। नंदीहारिभद्रीय वृत्ति में भी ऐसा उल्लेख मिलता है। मन:पर्यवदर्शन स्वतंत्र रूप से नहीं बताया गया है, तब ‘पश्यति' का प्रयोग क्यों? अचक्षुदर्शन नामक मनरूप नोइन्द्रिय के द्वारा यह दर्शन का विषय बनता है, इसलिए दर्शन सम्भव है। कोई व्यक्ति घट का चिंतन कर रहा है। मन:पर्यवज्ञानी मनोद्रव्यों को साक्षात् जानता है और मानस अचक्षदर्शन से वह देखता है। इसलिए सूत्रपाठ में ‘पासइ' का प्रयोग हुआ है। एक ही मन:पर्यवज्ञानी प्रमाता के मन:पर्यवज्ञान के बाद ही मानस अचक्षुदर्शन होता है। वह मनःपर्यवज्ञान से मनोद्रव्य को जानता है तथा मानस अचक्षुदर्शन से उन्हीं को देखता है। यह विशेष उपयोग की अपेक्षा से