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74 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4/जुलाई-दिसम्बर 2014 आधिपत्य का प्रभाव इस कला परम्परा पर दृष्टिगत होता है। गन्धार कला में मुख्यतः बौद्ध धर्म सम्बन्धी कथानकों के दृश्यांकन एवं बुद्ध तथा बोधिसत्वों की मूर्तियाँ ही आंकी गयी थीं। जैन तथा ब्राह्मण धर्म सम्बन्धी मूर्तियों का इस कला में पर्याप्त अभाव है। 33. पूर्व मध्यकाल में बौद्ध धर्म : पूर्वी भारत के विशेष संदर्भ में : यह व्याख्यान डॉ0 अनुराधा सिंह, इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी का था। डॉ सिंह ने अपने व्याख्यान में बौद्ध धर्म से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण पक्षों का पुरातत्त्व और साहित्य के आधार पर विवचेन करने का प्रयास किया। राजनीतिक रूप से हर्षवर्धन के बाद पाल शासकों ने बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान किया। उन्होंने बताया कि प्रारम्भिक मध्य काल में भारत के पूर्वी क्षेत्रों में बोधगया, नालन्दा, उदन्तपुरी, विक्रमशिला आदि महत्त्वपूर्ण केन्द्र थे। ये केवल धार्मिक गतिविधियों के केन्द्र ही नहीं अपितु शैक्षणिक केन्द्र भी थे। पालि के स्थान पर संस्कृत बौद्ध भिक्षुओं की भाषा थी और सहस्त्रप्रज्ञापारमिता उनका प्रमुख धर्मग्रन्थ था। इसी काल में बौद्ध धर्म का तंत्र की ओर झुकाव भी हुआ। बौद्ध तंत्रवाद में बौद्ध देवियों की पूजा को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह काल बौद्ध कला की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण था। नालन्दा, कुर्मिहार, पहाड़पुर आदि स्थानों से प्रस्तर और धातु की बनी बौद्ध मूर्तियाँ बहुतायत में प्राप्त हुई हैं। डॉ० सिंह ने बताया कि इसी समय बौद्ध धर्म पूर्वी भाग से सटे देशों जैसे तिब्बत, नेपाल, चीन, वर्मा और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में फैला जिसका व्यापक प्रभाव आज तक बना हुआ है। 34. नय एवं निक्षेप : यह व्याख्यान डॉ0 राहुल कुमार सिंह, रिसर्च एसोसिएट, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी का था। डॉ० सिंह ने बताया कि ज्ञाता या वक्ता के अभिप्रायः को नय कहा जाता है। यह प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु का आंशिक ज्ञान है। जो कि वक्ता के कथन की विवक्षा पर आधारित