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'श्रमण परम्परा, अहिंसा एवं शान्ति' : 65 लक्ष्य है। डॉ० श्रीवास्तव ने स्थानांग, दशवैकालिक इत्यादि जैन ग्रन्थों के आधार पर लोक कथा, नीतिकथा, दन्तकथा, दृष्टान्त, अर्थ कथा, काम कथा, धर्म कथा, दिव्य कथा, परिहास कथा इत्यादि कथा भेदों का सविस्तार वर्णन करते हुए जैन कथा साहित्य के रूप में वसुदेवहिण्डी, समराइच्चकहा, कुवलयमाला, धनपालकथा, आख्यानक मणिकोश, कहारयण कोस, नम्मयासुन्दरीकहा, महिवालकहा इत्यादि प्रकाशित/अप्रकाशित कथा साहित्यों के विषयवस्तु, रचनाकार एवं रचनाकाल इत्यादि का विशद् विवेचन किया। जैन काव्य साहित्य के संदर्भ में डॉ० श्रीवास्तव ने बताया कि इसका प्रारम्भ दूसरी-तीसरी शताब्दी से हुआ। पुराण, गद्य, खण्ड, नाटक, चम्पू, उपन्यास, दृष्टान्त, परिकथा इत्यादि काव्य साहित्य की विधाएँ हैं। इन्होंने बताया कि जैन काव्य साहित्य 24 तीर्थंकरों के चरित्र, राजा-रानियों, सेठ-सेठानियों, जुआरियों, धर्मी-अधर्मी को उददेश्य करके लिखे गये हैं। इस क्रम में उन्होंने पउमचरिय, पाण्डवचरिय, चउपन्नमहापुरिसचरिय, रायमल्लभ्युदय, आदिनाथचरिय, सुमईनाहचरिय, पउमपभचरिय, सुपारसनाहचरिय, चन्दपहचरिय, सेयांसचरिय, वसुपुज्जचरिय, अनन्तनाहचरिय, सन्तिनाहचरिय, नेमिनाहचरिय, पारसनाहचरिय, महवीरचरिय इत्यादि प्रकाशित/ अप्रकाशित काव्य साहित्यों के विषयवस्तु, रचनाकार एवं रचनाकाल का विशद् विवेचन किया। 19. जैन श्रमणाचार : यह व्याख्यान डॉ० कामिनी गोगरी, दर्शन विभाग, मुम्बई विश्वविद्यालय, मुम्बई का था। उन्होंने बताया कि जैन धर्म में श्रमणों के लिए जिन नियमों का विधान किया गया है वे श्रमणाचार कहलाते हैं। इसके अन्तर्गत गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, परिषह जय, धर्म, अनुप्रेक्षा एवं पंचमहाव्रतों इत्यादि के पालन का विधान है। महाव्रतों का पालन तीन योगों एवं तीन करणों से करने की बात है। इस क्रम में उन्होंने स्पष्ट किया कि क्रोध, मोह, मान, माया एवं लोभ – इन पंचकषायों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इनके स्वरूप को जानने के बाद ही निवृत्ति का प्रयास सम्भव है। डॉ0 गोगरी ने मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक आधार पर इन आचारों की प्रासंगिकता एवं उपादेयता को स्पष्ट किया।