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________________ 66 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4 / जुलाई - दिसम्बर 2014 20. जैन ज्ञानमीमांसा एवं प्रमाण विचार : यह व्याख्यान पार्श्वनाथ विद्यापीठ के रिसर्च एसोसिएट डॉ० राहुल कुमार सिंह द्वारा दिया गया। उन्होंने बताया कि जैन दर्शन में ज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, इसे जीव का लक्षण माना गया है। आगमों में पंचविध ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल ज्ञान की चर्चा है, जो विभिन्न ग्रन्थों में परोक्ष-अपरोक्ष के भेद से कुछ अन्तर के साथ विवेचित है। डॉ० सिंह ने बताया कि ज्ञान स्व- पर प्रकाशक माना गया है। आचार्य उमास्वाति ने सम्यक्ज्ञान को ही प्रमाण कहा है । आगम में प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं आगम रूप चतुर्विध भेद का नाम - निर्देश प्राप्त होता है। मुख्य रूप से इसके प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दो भेद होते हैं। उन्होंने प्रमाणमीमांसा के विकास के तीन स्तरों का उल्लेख करते हुए कहा कि प्रत्यक्ष जो कि विशद् ज्ञान है, मुख्यतः दो भागों में विभक्त है- सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक । अवधि, मनः पर्यय एवं केवल पारमार्थिक हैं जबकि मति एवं श्रुत सांव्यवहारिक हैं। परोक्ष के अन्तर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान एवं आगम आते हैं। डॉ० सिंह ने बताया कि प्रामाण्य के विषय में जैन दर्शन उत्पत्ति दशा में इसे परतः मानता है किन्तु ज्ञप्ति दशा में अभ्यास अवस्था में स्वतः एवं अनभ्यास अवस्था में परतः स्वीकार करता है। 21. जैन श्रावकाचार : यह व्याख्यान डॉ0 कामिनी गोगरी, मुम्बई विश्वविद्यालय, मुम्बई द्वारा दिया गया। उन्होंने बताया कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए अग्रसर गृहस्थों के लिए जिन नियमों के पालन का विधान जैन धर्म में किया गया है वे श्रावकाचार कहलाते हैं। उन्होंने श्रावकाचार के अन्तर्गत पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रतों का विशद् विवेचन किया । उन्होंने बताया कि चूँकि गृहस्थ त्रियोगों एवं त्रिकरणों से पूर्णरूपेण जैन आचार के पालन में सक्षम नहीं होते हैं इसलिए उन्हें कुछ छूट के साथ पालन की अनुमति है किन्तु इनके पालन में उनकी दृष्टि
SR No.525089
Book TitleSramana 2014 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2014
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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