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60 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4 / जुलाई - दिसम्बर 2014
10. जैन कर्म सिद्धान्त :
यह व्याख्यान प्रो० कमलेश कुमार जैन, विभागाध्यक्ष, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी का था। प्रो० जैन ने आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों 1. ज्ञानावरण, 2. दर्शनावरण, 3. वेदनीय, 4. मोहनीय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र और 8 अन्तराय का उल्लेख करते हुए मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवली पंचविध ज्ञान का विशद् विवेचन किया। उन्होंने बताया कि ज्ञान और दर्शन जीव का गुण है और जो इन ज्ञानों पर आवरण डाल दे उसे ज्ञानावरण कहते हैं ।
इसी क्रम में प्रो० जैन ने घातीय एवं अघातीय द्विविध कर्मों तथा ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग द्विविध उपयोग का भी विस्तृत विवेचन किया। कर्म विवेचन के क्रम में प्रो० जैन ने वेदनीय, मोहनीय आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय के विविध भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन करते हुए भव्य एवं अभव्य द्विविध जीवों का भी विवेचन किया ।
11. श्रमण परम्परा एवं शान्ति :
प्रस्तुत व्याख्यान प्रो० सीताराम दूबे, पूर्व विभागाध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा दिया गया। उन्होंने कहा कि परम्परा की सार्थकता इस तथ्य में निहित है कि पुरानी परम्परा से शक्ति संचयन कर पारम्परिक संस्कृति के माध्यम से नयी ऊर्जा का संचार करें। जो व्यापार दूसरों के लिए कष्टकारक हो वह हिंसा और जो हितकर हो वह अहिंसा है। अहिंसा और शान्ति एक-दूसरे के पूरक हैं। उन्होंने महाभारत तथा बौद्धशास्त्रों का उद्धरण देते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि अति प्राचीन काल में समाज धर्मानुरूप, समता एवं समरसता से चल रहा था । लोग त्यागी और तपस्वी थे। हिंसा एवं लालच की प्रवृत्ति कालान्तर में बढ़ी। उन्होंने अनेक उदाहरणों द्वारा यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया कि दण्डात्मक हिंसा के माध्यम से शान्ति स्थापना की प्राचीन परम्परा है ।