SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 56 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4/जुलाई-दिसम्बर 2014 में 84 चैत्यवासी मुनियों, उनकी परम्परा एवं संस्कृति का सविस्तार उल्लेख करते हुए 63 श्लाका पुरुषों- 24 तीर्थकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव और 9 प्रतिवासुदेव का भी उल्लेख किया। इसी क्रम में डॉ0 झिनकू यादव ने श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदाय के स्थानकवासी, तेरापंथी, तारणपंथी, बीसपंथी इत्यादि प्रभेदों का भी उल्लेख किया। 3. जैन धर्म का प्रारम्भिक इतिहास : यह व्याख्यान कार्यशाला निदेशक डॉ0 अशोक कुमार सिंह द्वारा दिया गया। उन्होंने बताया कि जैन परम्परा जगत् को अनादि और अनन्त मानती है। यह दृश्यमान जगत् कालचक्र के रूप में सदैव गतिशील है। यह कालचक्र दो भागों में विभक्त है- उत्सर्पिणी और अवसर्विणी। वर्तमान काल अवसर्पिणी का है। सात कुलकर प्रथम शासक हैं। अपने व्याख्यान में डॉ0 अशोक कुमार सिंह ने बताया कि ऋषभदेव इस संस्कृति के संस्थापक हैं। अरिष्टनेमि और पार्श्वनाथ भी महावीर के पूर्व तीर्थकरों में पौराणिक और ऐतिहासिक दृष्टि से मान्य हैं। 4. जैन परम्परा में योग एंव ध्यान : । यह व्याख्यान भी डॉ0 अशोक कुमार सिंह द्वारा दिया गया। उन्होनें बताया कि उपनिषदों में ब्रह्म की प्राप्ति, बौद्ध परम्परा में बोधिसत्व की प्राप्ति तथा जैन परम्परा में मोक्ष की प्राप्ति लक्ष्य का है। जैन परम्परा में योग बन्ध का कारण है। मन, वचन व शरीर की क्रियाओं से उत्पन्न आत्म प्रदेशों की प्रवृत्ति जिससे परमाणुओं का वन्ध होता है, वह योग है। इस क्रम में उन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य हरभिद्र, आचार्य हेमचन्द्र इत्यादि आचार्यों के योग सम्बन्धी मान्यताओं को विवेचित करते हुए योगसार, योगसमुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक, योगविंशिका, योग षोडशक एवं योगशास्त्र इत्यादि योग सम्बन्धी जैन साहित्यों पर प्रकाश डाला। ध्यान के सम्बन्ध में डॉ0 सिंह ने बताया कि जैन-ध्यान ध्यान से अधिक अनुप्रेक्षा है। वास्तविक योग साधना ही ध्यान है। आन्तरिक
SR No.525089
Book TitleSramana 2014 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2014
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy