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54 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4 / जुलाई - दिसम्बर 2014
इस अवसर पर कार्यशाला के परामर्शदाता पालि एवं बौद्ध साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् तथा पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो० विमलेन्द्र कुमार ने कहा कि श्रमण परम्परा की जैन एवं बौद्ध दोनों विधाएँ जिस रूप में अहिंसा एवं शांति का मार्ग प्रदर्शित करती हैं, वह अन्यत्र दृष्टिगत नहीं होता । प्रो० कुमार ने अहिंसा एवं शांति के संदर्भ में श्रमण परम्परा की भूमिका पर विस्तृत प्रकाश डाला।
इस अवसर पर कार्यशाला के निदेशक डॉ० अशोक कुमार सिंह ने कार्यशाला के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि वर्तमान परिदृश्य में श्रमण परम्परा की दोनों विधाएँ अहिंसा, शान्ति एवं विश्वबन्धुत्व के संदर्भ में अत्यन्त ही प्रासंगिक हैं । जैन व बौद्ध विद्या के विविध आयामों को हृदयंगम कर व्यावहारिक स्तर पर समाज को सदाचरण की ओर प्रवृत्त करना ही इस कार्यशाला का उद्देश्य है ।
31 दिसम्बर, 2014 से 11 जनवरी 2015 तक कुल 37 व्याख्यान हुए । सभी व्याख्यानों का संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है
1. भारतीय दर्शन एवं संस्कृति की विशेषताएँ : श्रमण परम्परा के विशेष संदर्भ में :
यह व्याख्यान प्रो0 अरविन्द कुमार राय, पूर्व विभागाध्यक्ष, दर्शन एवं धर्म विभाग, का0हि0वि0वि0, वाराणसी का था । प्रो0 राय ने बताया कि ब्राह्मण एवं श्रमण परम्परा में भेद विशेष की दृष्टि से है । स्याद्वाद केवल जैन दर्शन के लिए ही नहीं अपितु समस्त चिन्तन धाराओं के लिए महत्त्वपूर्ण है। स्याद्वाद के बिना मूल चिन्तन सम्भव नहीं है। कोई भी दृष्टि पूर्णतः असत्य नहीं हो सकती । इस दृष्टि से भारतीय परम्परा के समग्र पटल पर जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ब्राह्मण एवं श्रमण दोनों ही परम्पराएँ तप प्रधान हैं। तप भारतीय संस्कृति का प्राण है। जैन परम्परा में तप से ही निर्जरा होती है। ब्राह्मण परम्परा में कामनाओं की पूर्ति के लिए भी तप का विधान है।