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संस्कृतकाव्यशास्त्र एवं प्राकृतकाव्यसाहित्य... : 37 यहाँ गुणग्रहण आदि का बहुत्व (नानाविधत्व) और प्रेम का (सदा समान रूप में रहने से) एकविधत्व (क्रमशः बहुवचन तथा एकवचन से) द्योत्य है। पंचमोल्लास में गुणीभूतव्यङ्ग्यनिरूपणावसरे- असुन्दर नामक गुणीभूतव्यङ्ग्य के भेद हेतु गाहासत्तसई से उदाहृत गाथा, यथा
वाणीरकुंडगुड्डीणसउणिकोलाहलं....सीअन्ति अंगाई।। पंचमोल्लास में ही वाच्यार्थ और व्यङ्ग्यार्थ के बीच पार्थक्यनिरूपण हेतु गाहासत्तसई से उदाहृत गाथा, यथा
कस्य वा ण होइ रोसो दठूण पिआइ सव्वणं अहरं।
सभमरपडमग्घाइणि वरिअवामे सहसु एण्हिं ।।। इस गाथा में वाच्यार्थ सखी विषयक एवं व्यङ्ग्यार्थ के उसके पति से सम्बद्ध रूप होने से वाच्यार्थ-व्यङ्ग्यार्थ के मध्य भेद को प्रदर्शित करता है। वही लक्ष्यार्थ से व्यङ्ग्यार्थ के भेद निरूपण हेतु प्राकृत गाथा, यथा
अत्ता एत्थ णिमज्जइ एत्थ अहं दिअहए पलोएहि।
मा पहिअ! रत्तिअन्धअ! सेज्जाए मह णिमज्जहिसि।।। यहाँ बिना लक्षणा के ही व्यङ्ग्यार्थ की प्रतीति हो रही है। पंचमोल्लास में ही महिमभट्ट के मत खण्डन के प्रसंग में गाहासत्तसई से उदाहृत प्रसिद्ध गाथा, यथा
भम धम्मिअ वीसद्धो सो सुणओ अज्ज मारिओ तेण।
गोलाणईकच्छकुंडगवासिणा दरिअसीहेण।।23 इस गाथा की प्रसिद्धि एवं ध्वनिसिद्धान्त के साथ इसके सम्बन्ध को सहज रूप में देखा जा सकता है। सप्तमोल्लास में वाक्यगतदोष के अन्तर्गत 'हतवृत्तता' दोष के निरूपण हेतु 'विषमबाणलीला' से उदाहृत गाथा, यथा