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________________ 36 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4/जुलाई-दिसम्बर 2014 खलववहारा दीसन्ति दारुणा जहवि तहवि धीराणां। हिअअवअस्सबहुमआ ण हु ववसाआ विमुज्झंति ।।16 यहाँ विमुझंति यह पद अत्यन्त तिरस्कृतवाच्य है। गाथाद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के उदाहरणार्थ एक प्राकृत गाथा एवं अर्थशक्त्युत्थ कविप्रौढोक्तिसिद्ध पदद्योत्यध्वनि के उदाहरणार्थ तीन गाथाएँ तथा कविनिबद्ध वक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध पदद्योत्य ध्वनि के उदाहरण हेतु पाँच प्राकृत गाथाएँ काव्यप्रकाशकार ने उपस्थापित किया है। इसीप्रकार रसादिध्वनि के पदैकदेशरचनावर्णेष्वपि रसादयः के उदाहरणार्थ 'गाहासत्तसई से तीन प्राकृत गाथाएँ उद्धृत हैं, यथा रइकेलि हिअणिअसणकरकिसलअरुद्धण अणजुअलस्स। रुद्दस्स तइअण अणं पव्वई परिचुंबिअं जअइ।।" 'जअइ' (जयति) इस तिङ्न्त पद की प्रकृति से रस की व्यंजकता प्रदर्शित की गई है। सम्बन्धकारक अर्थात् षष्ठी विभक्ति के रसव्यंजकत्व का उदाहरण, यथा गामारुहम्मि गामे वसामि णअरट्ठिई ण जाणामि। णाअरिआणं पइणो हरेमि जा होमि सा होमि।। यहां णाअरिआणं (नागरिकाणा) इस षष्ठी विभक्ति की रसव्यंजकता है। यहां ‘णाअरिआणं पइणो' (नागरिकाणां पतीन्) इस सम्बन्ध से नागरिकाओं से उनके पतियों के चातुर्य का और उनको भी अपने वश में कर लेने से अपने चातुर्यातिशय का बोधन व्यङग्य है। “षष्ठी चानादरे सूत्र से अनादरार्थ में षष्ठी होने से तुम्हारी सरीखी नागरिकता का दम भरनेवालियों के सामने उनके देखते-देखते उनके पतियों को अपने वश में कर लेती हूँ इस प्रकार अपना उत्कर्ष व्यङ्ग्य है। इसी प्रकार वचन की व्यंजकता के उदाहरण हेतु– 'गाहासत्तसई से उदाहृत गाथा, यथा ताणं गुणग्गहणाणं ताणुक्कंठाणं तस्स पेम्मस्स। ताणं भणिआणं सुन्दर! एरिसिअंजाअमवसाणं ।।
SR No.525089
Book TitleSramana 2014 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2014
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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