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4 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 2/अप्रैल-जून 2014 सामान्य लोकभाषा, साहित्यिक भाषा तथा कृत्रिम भाषा के निर्माण, विकास एवं अवसान की प्रकृति को दृष्टिगत करते हुए कालिदास के रूपकों में प्रयुक्त नाटकीय प्राकृत का विवेचन किया गया है। महाकवि ने अपने नाटकों में शौरसेनी, महाराष्ट्री तथा मागधी भाषा में पात्रों के मुख से संवाद कराया है। कालिदास द्वारा प्रयुक्त प्राकृतों का संक्षिप्त विवेचन इस आलेख में किया गया है। कालिदास के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत भाषाएँ नाट्य-विधान के प्रसंग में भरत द्वारा वर्णित अतिभाषादि चारों प्रकार की भाषाओं में से जातिभाषा का प्रयोग चारों वर्गों के द्वारा संस्कृत एवं प्राकृत दो रूपों में किया जाता है। संस्कृत का प्रयोग नाट्य में कुलीन, कृतात्मा पुरुषों के द्वारा किया जाता है किन्तु यह बात पूर्णत: सत्य नहीं है क्योंकि पात्रों के भाषाप्रयोग का निर्धारण उनकी प्रकृति के अनुसार भी होता है। अत: उत्तम पात्र भी परिस्थितिवश कभी-कभी मध्यम एवं अधम पात्रों की ही भाषा का प्रयोग करते हैं। कालिदास ने अपने नाटकों में पात्रों द्वारा भाषाप्रयोग में इसी तथ्य को ध्यान में रखकर विविध भाषाओं का अपने पात्रों द्वारा प्रयोग करवाया है। कालिदास के तीनों रूपकों के नायक धीरोदात्त हैं जो प्राय: संस्कृत का ही प्रयोग करते हैं किन्तु विक्रमोर्वशीय नाटक के चतुर्थ अंक में प्रियावियोग के कारण उन्मत्त स्थिति में पुरूरवा की प्रलापोक्तियों में कई स्थानों पर अपभ्रंश का प्रयोग हुआ है। सामान्य लोग प्राकृत में बातचीत करते थे। आचार्य भरत ने अन्त:पुर स्त्री पात्रों द्वारा किसी कार्य-विशेष पर संस्कृत भाषा का प्रयोग करने का विधान प्रस्तुत किया था किन्तु कालिदास के रूपकों में कोई भी नायिका अथवा अन्य स्त्री पात्रों ने भी संस्कृत का प्रयोग नहीं किया है। मालविकाग्निमित्रम् के पुरुष पात्रों में राजा अग्निमित्र, नाटक का प्रबन्धकर्ता, सूत्रधार का सहचर, परिपार्श्वक, अन्त:पुराध्यक्ष, वृद्ध ब्राह्मण