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कालिदास के रूपकों में प्रयुक्त प्राकृत का वैशिष्ट्य : 3 नमिसाधु के अनुसार प्राकृत शब्द का अर्थ है- व्याकरण आदि संस्कारों से रहित लोगों का स्वाभाविक वचन-व्यापार। उससे उत्पन्न अथवा वही वचन व्यापार प्राकृत हैं। प्राक् कृत पदों से प्राकृत शब्द बना है, जिसका अर्थ है पहले किया गया। प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति है प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम् अथवा प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम् इस अर्थ को स्वीकार करना चाहिये अर्थात् जन सामान्य की स्वाभाविक भाषा प्राकृत है। ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी से लेकर १७वीं शताब्दी तक विविध प्राकृतों में प्राकृत कथा साहित्य, काव्य साहित्य तथा नाटक साहित्य का विकास हुआ है। इसमें बहुतायत से महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग प्राकृत कथाओं तथा प्राकृत के काव्यों में हुआ है। संस्कृत के नाटकों में पात्रानुसार शौरसेनी, मागधी, शाकारी, चाण्डाली, पैशाची आदि प्राकृतों का प्रयोग हुआ है।
प्राकृत भाषा सामान्य जन की लोक भाषा थी जो कलात्मकता से सर्वथा दूर रही है। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में भिन्न-भिन्न पात्रों के लिए भिन्न-भिन्न प्राकृत भाषाओं के बोले जाने का उल्लेख किया है, यथा- मागधी, आवन्तिका, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, बाह्रीकी और दाक्षिणात्या प्राकृत भाषा का प्रयोग भरत के अनुसार निम्न कार्य करने वाले व्यक्ति करते हैं। यहाँ भरत के कथन का तात्पर्य मध्यम एवं अधम प्रकृति के गुणों से युक्त व्यक्तियों से है। इन्हें ही भरत ने निम्नवर्ग का पात्र कहा है। संस्कृत नाटकों में अश्वघोष कृत शारिपुत्रप्रकरण में प्राचीन प्राकृत का प्रयोग ही मिलता है, अशोक के शिलालेखों में इन्ही प्राकृतों का प्रयोग हुआ है। कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् , मालविकाग्निमित्रम् एवं विक्रमोर्वशीयम् नाटक के गद्य में शौरसेनी प्राकृत का तथा पद्य में महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग हुआ है। पृथ्वीधर के अनुसार शूद्रक कृत मृच्छकटिकम् में सात प्रकार की प्राकृतों का प्रयोग प्राप्त होता है। भास के सभी नाटकों में विविध प्राकृतों का प्रयोग हुआ है। उसमें मागधी प्राकृत प्रमुख रूप से प्राप्त होती है। भवभूति के नाटकों में शौरसेनी, महाराष्ट्री और मागधी प्राकृत का प्रयोग मिलता है।