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66 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 2/अप्रैल-जून 2014 इस ग्रन्थ में आचार्य ने पाँच पूर्वपक्षों के माध्यम से दर्शन की प्रमुख पाँच समस्याओं, जिसको लेकर दर्शन के प्राय: सभी सम्प्रदाय वादप्रतिवाद करते हैं, को स्पष्ट किया है। ये समस्याएँ हैं- वस्तु सत् है या असत्? नित्य है या अनित्य? सामान्य है या विशेष? अभिलाप्य है या अनभिलाप्य? एवं मोक्ष का स्वरूप क्या है? संपूर्ण ग्रन्थ इन्हीं समस्याओं के सन्दर्भ में जैन मत का तार्किक प्रस्तुतीकरण है। आचार्य द्वारा अपनी कृति अनेकान्त्जयपताका पर लगे आक्षेपों के निराकरण हेतु तथा अनेकान्तवाद में प्रवेश हेतु रचित इस ग्रन्थ में अनेकान्तजयपताका की विषयवस्तु का ही क्रमबद्ध विभाजन एवं विश्लेषण हुआ है। यह ग्रन्थ सटिप्पणक संशोधित रूप में मुद्रित है। यद्यपि टिप्पणककर्ता का परिचय अप्राप्त है। इस ग्रन्थ की उपलब्ध प्रति श्री नीतिविजय महाराज समुपदिष्ट एवं भोगीलाल लहेरचन्द द्वारा वि० स० १९७६ (१९१९ ई०) में पाटण से प्रकाशित है। अप्रतिम जैन सिद्धान्त अनेकान्तवाद पर अनेक विद्वानों के शोधालेख प्राप्त होते हैं तथा उनके संदर्भ-सूची में अनेकान्तवादप्रवेश एवं अनेकान्तजयपताका का उल्लेख यत्र-तत्र ही प्राप्त होता है। इन दोनों ग्रन्थों का भाषान्तर न होने से इनका उपयोग विद्वानों द्वारा सम्यक् रूप से नहीं किया जा सका। इस तरह विद्यार्थियों एवं अध्येताओं द्वारा मूलग्रन्थों के अनुदित संस्करण की अपेक्षा की जाती है। परन्तु अभी तक अनेकान्तवादप्रवेश का कोई हिन्दी या अंग्रेजी अनुवाद संज्ञान में नहीं आने के कारण पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने इस ग्रन्थ के हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद को प्रकाशित करने की योजना बनायी है। इस ग्रन्थ का हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद रिसर्च एसोसिएट डॉ० राहुल कुमार सिंह द्वारा किया जा रहा है, अनुवाद का आधार ऊपर उल्लिखित प्रति को बनाया गया है। इस ग्रन्थ के अनुवाद का प्रारूप निम्नवत् होगा - मूल (संस्कृत), रोमन ट्रांसलिटरेशन, हिन्दी अनुवाद, अंग्रेजी अनुवाद
और ग्रन्थ के अन्त में प्रमुख पारिभाषिक शब्दावली, शब्दानुक्रमणिका व श्लोकानुक्रमणिका।