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जैन साधना में श्रावक धर्म : 31 है। साधक अपने विकास के चरण में श्रमण या मुनि जीवन को स्वीकार कर लेता है या संथारा ग्रहण कर देह त्याग देता है, इसे श्रमण जीवन की पूर्व भूमिका भी कहा जा सकता है।३३ इस प्रकार श्रावक उपर्युक्त प्रतिमाओं का क्रमशः पालन करते हुए अपना नैतिक विकास करता है तथा साधना के अन्तिम आदर्श को प्राप्त करता है। उपर्युक्त निर्वचित श्रावक धर्म के विविध पक्षों के विश्लेषण से यह दिग्दर्शित होता है कि इनका नियोजन व्यक्ति के व्यक्तिगत नैतिक जीवन के उन्नयन एवं सामाजिक जीवन की साधुता के उत्कर्ष के लिए किया गया था। निःसन्देह जैन धर्म के ये सिद्धान्त भारतीय सांस्कृतिक जीवन के मूल्यवान उपादान सिद्ध हुए हैं। सन्दर्भ :
श्रावकधर्मप्रज्ञप्ति, ६ तत्त्वार्थसूत्र, ७/१-२, उमास्वामी, विवेचक - पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, गणेशप्रसाद वर्णी दिगम्बर जैन शोध संस्थान, नरिया, वाराणसी, द्वितीय संस्करण, १९९१, पृ. XXVII रत्नकरण्डश्रावकाचार, समन्तभद्र, श्री मुनिसंघ साहित्य प्रकाशन समिति, सागर, चतुर्थ संस्करण, १९९२, श्लोक ५३, पृ. १०१ उपासकदशाँग, सम्पा. मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान), १९८०, १/४१, पृ. ३९ रत्नकरण्डश्रावकाचार, उपरोक्त, श्लोक ५५, पृ. १०१ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, स्वामी कार्तिकेय, श्रीपरमश्रुत प्रभावक श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, आगास, १९६०, ३३३-३३४,
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पृ. २३९
भगवतीसूत्र, ८३५ तत्त्वार्थसूत्र, उपरोक्त, ७/२६, पृ. XXVIII वही, ७/५, पृ. XXVII कार्तिकेयानुप्रेक्षा, उपरोक्त, ३३५-३३६, पृ. २४१ रत्नकरण्डश्रावकाचार, उपरोक्त, श्लोक ५७, पृ. १०९ तत्त्वार्थसूत्र, उपरोक्त, ७/२७, पृ. XXVIII
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