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30 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 2/अप्रैल-जून 2014 पाँचवीं प्रतिमा का नाम 'सचित्त त्याग' है, इसमें श्रावक अपनी हिंसावृत्ति को नियंत्रित करता है तथा अपने भोजन में कन्द-मूल हरे शाक, बिना उबले जल आदि का त्याग कर देता है। छठी 'रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा' है। इसमें श्रमणोपसक (श्रावक) रात्रि में अन्न, खाद्य, लेह्य, पेय इन चार प्रकार के आहार का त्याग कर देता है। सातवी प्रतिमा ‘ब्रह्मचर्य प्रतिमा' में श्रावक अपनी स्त्री से भी कामक्रीड़ा त्याग देता है और पूर्ण ब्रह्मचारी बन जाता है। आठवीं प्रतिमा ‘आरम्भ त्याग' की है। विकास की इस कक्षा में उपासक सांसारिक आसक्ति का त्याग कर अपने गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित कार्य का भार अपने पुत्रादि पर छोड़ देता है। नौवीं ‘परिग्रह-त्याग प्रतिमा' में श्रावक को धन-धान्य आदि समस्त सांसारिक वस्तुओं से अनासक्ति हो जाती है। दसवीं प्रतिमा ‘अनुमति-त्याग' की है इस प्रतिमा में स्थित श्रावक अपने पुत्रादि को किसी भी कार्य के लिए अनुमति देना त्याग देता है अर्थात् विरक्त हो जाता है। ग्यारहवीं प्रतिमा का नाम 'उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा' है, इस अवस्था में उपासक गृह त्याग देता है। मुनि के आश्रम में जाकर ग्यारहवीं प्रतिमा का व्रत लेकर तपस्या करता है, मुनि संघ में रहते हुए भिक्षावृत्ति से आहार लेता है तथा कोपीन और खंड वस्त्र धारण करता है। इस प्रतिमा को धारण करने वालों के दो भेद होते हैं- प्रथम 'क्षुल्लक' जो कोपीन और खण्डवस्त्र धारण करते हैं, कैंची अथवा छुरे से अपना बाल बनवाते हैं तथा पात्र में भोजन करते हैं। द्वितीय ‘एलक' जो कोपीन मात्र धारण करते हैं, केशलोंच स्वयं करते हैं तथा आहार हाथ में लेकर करते हैं। एकल तथा दिगम्बर मुनि (श्रमण) की चर्या एक समान ही है। अन्तर सिर्फ इतना है कि ये (एकल) कोपीन धारण करते हैं, जबकि दिगम्बर मुनि सर्वथा नग्न रहते हैं। डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में, “यह अवस्था गृही साधना की सर्वोत्कृष्ट भूमिका