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________________ 28 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 2/अप्रैल-जून 2014 ईर्ष्याभाव से दान देना अर्थात् अन्य दातारों से ईर्ष्या रखना, नवधा भक्ति (पड़गाहन, उच्च स्थान, पाद-प्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, भोजनशुद्धि आदि) भूल जाना- ये वैयावृत्य शिक्षा व्रत के पाँच अतिचार हैं। सल्लेखनाजिस समय अनिवार्य उपसर्ग आ जाये, दुर्भिक्ष पड़े, कोई असाध्य रोग हो जावे या किसी प्रकार के उपसर्ग, परीषह अथवा अन्य संकट का सामना करना पड़े तथा श्रावक को यह लगे कि अब प्राणों का बचना कठिन है तथा उसका शरीर अब किसी भी काम का नहीं रह गया है, वह इस धरती पर भार-सदृश है, तो ऐसे समय पर शान्ति धारण कर धर्म की प्रभावना के भी निमित्त इस नाशवान शरीर को शान्तिपूर्वक त्याग देना ही सल्लेखना है। जैन शास्त्रों में सल्लेखना को आत्मघात नहीं बताया गया है। आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि के अनुसार हिंसा के कारण कषाय-भावों को जहाँ कम किया जाता है, वहीं सल्लेखना अहिंसा धर्म की वर्द्धक है। इसमें आत्मघात का दोष नहीं है। जहाँ कषाय-सहित व्यक्ति की मृत्य हो, वहाँ आत्मघात का दोष लगता है। यह काया धर्मसाधन की सहायक है, अतएव इसकी रक्षा करना तभी तक उचित है, जब तक आत्मिक धर्म सधे और जब इसकी रक्षा करने से अपना धर्म डूबने लगे, तब इसको त्याग देना ही उचित है नीयन्तेऽषकशाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसयप्रसिद्धयर्थम् ।। विकृत चित्तवृत्ति का परिणाम आत्मघात है, जबकि सल्लेखना निर्विकार चित्तवृत्ति से होती है। आत्मघात चित्त की अप्रसन्नता एवं अशान्ति को द्योतित करती है, सल्लेखना चित्त की प्रसन्नता एवं शान्ति को प्रकट करती है। इस प्रकार आत्मिक धर्म की रक्षा के लिए शरीर का त्याग 'सल्लेखना' है।
SR No.525088
Book TitleSramana 2014 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2014
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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