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________________ 22 : श्रमण, वर्ष ६४, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०१३ तर्क की प्रस्तावना में अनेकान्त के ऐतिहासिक विकास के सम्बन्ध में लिखा है- भगवान् महावीर से पहले भारतीय वाङ्मय में अनेकान्तिक दृष्टि नहीं थी, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु प्राचीन जैन आगमों के पूर्ववर्ती और समसमयवर्ती दूसरे दार्शनिक साहित्य के साथ तुलना करने पर यह तो स्पष्ट है कि व्यवस्थित निरूपण भगवान् महावीर के उपदेश रूप माने जाने वाले जैन आगमों में ही है। उपलब्ध जैन अंग ग्रन्थों में अनेकान्त दृष्टि की तथा उससे फलित होने वाले दूसरे वादों की चर्चा तो है परन्तु वह बहुत संक्षिप्त है। आगम पर नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि जैसे साहित्य मे यह चर्चा कुछ लम्बी तो अवश्य दिखाई पड़ती है, परन्तु उसमें तर्कशैली एवं दार्शनिक वाद-प्रतिवाद बहुत ही कम है। जैन वाङ्मय में संस्कृत भाषा का और उसके द्वारा तर्कशैली तथा दार्शनिक खण्डन-मण्डन का प्रवेश होते ही अनेकान्त की चर्चा विस्तृत रूप लेती है तथा उसमें नई-नई अपेक्षाओं का समावेश होता है और उसके मूल कलेवर के अनुसार उसमें अनेक सप्रमाण विचार-परम्पराएँ स्थान प्राप्त करके योग्य रूप से व्यवस्थित हो जाती हैं। ईसा के बाद होने वाले दार्शनिकों ने जैन तत्त्व विचार को अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिपादित कर भगवान् महावीर को इसका उपदेशक बताया। 'लघीयस्त्रय' में आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है "सर्वज्ञाय निरस्तबाधकधिये स्याद्वादिने नाम, स्यात्प्रत्यक्षमलक्षयन् स्वमतमभ्यस्याप्यनेकान्तभाक् । तत्त्वंशक्यपरीक्षणं सकलविनैकान्तवादी ततः, प्रेक्षावानकलंक याति शरणं त्वामेववीरं जिनम् ।।५।। प्रमाण और नय से जीवादि तत्त्वों का सम्यग्ज्ञान होता है, अत: एकान्तवादी बौद्ध आदि अपने मत का अभ्यास करके, प्रत्यक्ष से ग्राह्य और परीक्षा करने के लिए शक्य भी अनेकान्तात्मक तत्त्व की ओर लक्ष्य नहीं करते, अत: वे सर्वज्ञ नहीं हो सकते। इसलिए विचारशील निर्दोष परीक्षकजन आप वीर जिनेन्द्र की ही शरण में जाते हैं। अत: सर्वज्ञता
SR No.525086
Book TitleSramana 2013 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2013
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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