SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्तवाद : उद्भव और विकास योगेश कुमार जैन जैन दर्शन के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अनेकान्तवाद का बीज “विभज्यवाद" के रूप में सूत्रकृताङ्ग जैसे प्राचीन अङ्ग आगम में ही प्राप्त होता है। आधुनिक विद्वानों के अनुसार भगवान् महावीर के उपदेश को चित्रविचित्र पुंस्कोकिल की पांख की संज्ञा देना उनके उपदेश को अनेकरंगी अनेकान्तवाद मानना है। प्रस्तुत लेख में अनेकान्त का अर्थ, आचार्य सिद्धसेन, आचार्य वीरसेन, आचार्य माणिक्यानन्दी, आचार्य अमृतचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय, आचार्य तुलसी आदि द्वारा प्रदत्त अनेकान्तवाद के लक्षण, अनेकान्तवाद के भेद-प्रभेद का विवेचन किया गया है। -सम्पादक अनेकान्त जैन दर्शन का प्राण तत्त्व है। इस सिद्धान्त के उद्भव की ऐतिहासिकता का निश्चय करना संभव नहीं है। जिस प्रकार ऋग्वेद में विश्व की उत्पत्ति के संदर्भ में कहा गया है - "एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति।"१ सत् तो एक ही है किन्तु विद्वान् उसका वर्णन बहुत प्रकार से करते हैं अर्थात् एक ही तत्त्व के विषय में नाना प्रकार के वचन प्रयोग देखे जाते है, जिसे हम समन्वयशीलता कहते हैं। इसी समन्वयशीलता का शास्त्रीयरूप जैनदर्शन सम्मत स्याद्वाद या अनेकान्त है। विश्व-वैचित्र्य के कारण की जिज्ञासा से उत्पन्न अनेक मतवादों का निवेश उपनिषदों में है। इस प्रकार विभिन्न मतों का एक जाल सा बन गया। जिस प्रकार एक ही पहाड़ से अनेक नदियाँ बहती हैं उसी प्रकार एक ही प्रश्न के उत्तर में अनेक मतों की नदियाँ बहने लगीं और ज्यों-ज्यों वे नदियाँ आगे बढ़ीं उनका विस्तार भी हुआ और अंत में वे एक ही समुद्र में जाकर मिल गई। उसी प्रकार सभी मतवादियों का समन्वय महासमुद्ररूपर स्याद्वाद या अनेकान्तवाद में हो गया। प्राचीन तत्त्व-व्यवस्था में भगवान् महावीर ने क्या नया अर्पण किया, इसे जानने के लिए आगमों से बढ़कर हमारे पास कोई साधन नहीं है। पं० सुखलाल संघवी ने सन्मति
SR No.525086
Book TitleSramana 2013 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2013
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy