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2 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2013 तो ध्यानमुद्रा में बैठे हैं या कायोत्सर्गमुद्रा में दोनों हाथ नीचे लटकाकर खड़े हैं। काशी के जैन मन्दिर और मूर्तियां श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं से सम्बन्धित हैं। जैन कला का प्रारम्भिक उदाहरण एक प्रतीक पट्ट है जिसे लेखक ने ही सारनाथ संग्रहालय के आरक्षित संग्रह में देखकर पहचाना और संग्रहालय की जैन वीथिका में प्रदर्शित करवाया। इस प्रतीक पट्ट को अनुमानत: कुषाणकाल का माना जा सकता है। इस पट्ट पर प्रारम्भ में बड़े आकार का श्रीवत्स और उसके बाद धर्मचक्र जैसे वृत्त के चारों ओर चार त्रिरत्न बने हैं। यह प्रतीक पट्ट मथुरा के कुषाणकालीन आयाग पट्टों के समकक्ष है। प्रारम्भिक जिनमूर्तियों में वाराणसी नगर से प्राप्त महावीर की सिंहलांछन युक्त छठी शती ई. की गुप्तकालीन ध्यानस्थ मूर्ति कला की दृष्टि से उत्कृष्ट है। यह मूर्ति भारत कला भवन, वाराणसी (क्रमांक १६१) में सुरक्षित है। राजघाट से मिली और भारत कला भवन वाराणसी (क्रमांक २१२) में संगृहीत यक्ष एवं यक्षी (अम्बिका) से युक्त सातवीं शती ई. की दूसरी मूर्ति नेमिनाथ की है। दोनों ही मूर्तियों में तीर्थङ्कर ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं। ७वीं से १२वीं ई. के मध्य की ऋषभनाथ, अजितनाथ, सुपार्श्वनाथ, विमलनाथ, नेमिनाथ,पार्श्वनाथ की स्वतंत्र मूर्तियों और जिन-चौमुखी (प्रतिमा सर्वतोभद्रिका) के उदाहरण स्थानीय एवं लखनऊ संग्रहालयों में तथा वाराणसी के जैन मन्दिरों में सुरक्षित हैं। मन्दिरों की मूर्तियां अधिकांशत: १४वीं से २०वीं शती ई. के मध्य की हैं। इनमें मुख्यत: तीर्थङ्करों एवं यक्ष-यक्षियों की प्रतिमाएं ही स्थानीय जैन मन्दिरों में प्रतिष्ठित हैं। मन्दिरों में सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ की ही सर्वाधिक मूर्तियां हैं। यह दूसरी बात है कि प्रारम्भिक मूर्तियां महावीर और नेमिनाथ की हैं। स्मरणीय है कि काशी सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ की जन्मस्थली रही है। प्रसंगवश दोनों ही तीर्थङ्करों से सर्प सम्बद्ध हैं जिनके साथ सर्पफणों का छत्र है। पार्श्वनाथ के साथ तो लांछन भी सर्प ही है। इस तथ्य को शिव से या नागपूजन की लोक-परम्परा से सम्बन्धित किया जा सकता है। काशी शिव की नगरी रही है और शिव के विभिन्न नामों में अहीश और नागेश नाम भी मिलते हैं। काशी नागवंश और नागपूजन की परम्परा का भी महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। आज भी नागपंचमी के रूप में हम नागपूजन का विशेष पर्व मनाते हैं। जिनप्रभसूरि कृत कल्पप्रदीप या विविध तीर्थकल्प (१४वीं शती ई.) के वाराणसी कल्प में काशी के पार्श्वनाथ मन्दिर का उल्लेख हुआ है। वर्तमान में भेलूपुर स्थित पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर की तीर्थङ्कर मूर्तियों के पीठिका- लेखों में दी गई