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जैन कला और परम्परा की दृष्टि से काशी का वैशिष्ट्य
प्रो.मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी - डॉ. आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव
जैन कला के मनीषी लेखक द्वय का यह लेख काशी की जैन कला और परम्परा का समीचीन तथा प्रामाणिक चित्रण प्रस्तुत करता है। तीर्थङ्करों (सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभु, श्रेयांसनाथ और पार्श्वनाथ) के जन्म से पवित्र काशी का जैनकला की दृष्टि से गौरवशाली इतिहास रहा है। तीर्थङ्कर ऋषभदेव और महावीर की विशिष्ट मूर्तिकला का भी लेखक ने चित्रण किया है। बड़ी विशेषता यह भी है कि लेखक द्वय ने तीनों परम्पराओं का निष्पक्ष चित्रण किया है। - सम्पादक जैन ग्रन्थों में काशी जनपद और उसकी राजधानी वाराणसी का अनेकश: उल्लेख हुआ है। अनुमानत: वर्तमान में वाराणसी जिले के क्षेत्र को ही प्राचीन काशी का क्षेत्र मान सकते हैं। गुप्तकाल से वर्तमान युग तक काशी में जैन धर्म और कला के प्रमाण मिलते हैं। जैन परम्परा के अनुसार २४ तीर्थङ्करों में से चार तीर्थङ्करों का जन्म काशी के विभिन्न क्षेत्रों में हुआ था। सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ और २३वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में क्रमश: भदैनी और भेलूपुर मुहल्ले में हुआ जबकि आठवें तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ का जन्म वाराणसी से पन्द्रह किलोमीटर पूर्व गंगा के किनारे स्थित चन्द्रपुरी में हुआ। ११वें तीर्थङ्कर श्रेयांसनाथ की जन्मस्थली सिंहपुरी थी जिसकी सम्भावित पहचान सारनाथ से की जाती है। सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ को केवलज्ञान भी वाराणसी में ही प्राप्त हुआ था, ऐसा एक मत है। यात्राक्रम में महावीर का भी वाराणसी आगमन हुआ था। जैनग्रन्थों के अनुसार तीर्थङ्करों के पंचकल्याणकों से सम्बद्ध स्थान स्वतः पवित्र बन जाते हैं। फलत: जैनधर्म की दृष्टि से काशी का महत्त्व स्वत: सिद्ध है। काशी में गुप्तकाल से २०वीं शती ई. के मध्य की यथेष्ट जैन मूर्तियां मिली हैं जो वर्तमान में भारत कला भवन, वाराणसी, राज्य संग्रहालय, लखनऊ और पुरातत्त्व संग्रहालय, सारनाथ तथा स्थानीय जैन मन्दिरों में सुरक्षित और प्रतिष्ठित हैं। वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न और शीर्ष भाग में त्रिछत्र (जैनधर्म के रत्नत्रयी सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र के सूचक) से युक्त तीर्थङ्कर मूर्तियों को केवल ध्यान और तपस की दो पारम्परिक मुद्राओं में ही निरूपित किया गया। मूर्तियों में तीर्थङ्कर या