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________________ 14 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2013 यह स्थिति अनेक क्षेत्रों के साथ है। अब तो अनेक नये तीर्थ क्षेत्रों का निर्माण हो रहा है। यहां एक बात विशेष उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश में किसी तीर्थंकर का एक भी कल्याणक नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश में १८ तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक हुए हैं। बिहार में ६ तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक हुए तथा २२ तीर्थंकरों के निर्वाण कल्याणक (वर्तमान में यह झारखण्ड राज्य के अन्तर्गत हैं) हुए। इसी प्रकार गुजरात में भगवान नेमिनाथ के तीन कल्याणक हुए। कुछ लोगों की मान्यता है कि उदयगिरि विदिशा में भगवान शीतलनाथ के गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक हुए थे, यद्यपि इसका ठोस आधार उपलब्ध नहीं है। कला क्षेत्र- इस क्षेत्र में ऐसे स्थान भी हैं जो न तो सिद्ध क्षेत्र हैं न अतिशय क्षेत्र हैं किन्तु फिर भी कला, पुरातत्त्व और इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें ग्वालियर, अजयगढ़, खजुराहो, पनिहार बरई, त्रिपुरी आदि प्रमुख हैं। इन क्षेत्रों में तीर्थंकर मूर्तियां हजारों की संख्या में उपलब्ध हैं। इनमें खड्गासन मूर्तियों की संख्या पद्मासन मूर्तियों की अपेक्षा कम है। विशेष रूप से बुन्देलखण्ड के अतिशय क्षेत्रों पर विशाल.अवगाहना वाली शान्तिनाथ भगवान की प्रतिमायें स्थापित करने की परम्परा रही है। ग्वालियर किले की आदिनाथ भगवान की ५७ फीट ऊंची प्रतिमा उंचाई की दृष्टि से दूसरे नम्बर पर है। प्रथम स्थान पर चूलगिरि (बडवानी) की भगवान आदिनाथ की प्रतिमा है जो ८४ फीट ऊंची है। भारत में इससे ऊँची कोई भी प्रतिमा नहीं है। इसी प्रकार चन्देरी की चौवीसी प्रतिमा अपने तरह की एक अलग चौवीसी है। इन मूर्तियों की विशेषता है कि इनका वर्ण शास्त्रों में बताये गये तीर्थंकरों के वर्ण के अनुरूप ही है। कालक्रम की दृष्टि से गुप्तकाल के पहले की कोई प्रतिमा इन क्षेत्रों में नहीं मिलती। पुरातत्त्व की दृष्टि से विन्ध्य-प्रदेश, महाकोशल को जैन पुरातत्त्व का गढ़ कहा जा सकता है। यहां कोई वन, पर्वत, जलाशय या दुर्ग नहीं है जहां जैन मूर्तियां खंडित और अखंडित दशा में सैकड़ों की संख्या में न मिलती हों। इन भूभागों में चन्देल, कलचुरि, प्रतिहार, तोमर और परमार शासकों के राज्यकाल में कला का विकास द्रुत गति से हुआ। इस क्षेत्र में मध्ययुग के सन्धि काल की भी कुछ मूर्तियां प्राप्त होती हैं। इस काल में अष्टप्रातिहार्य और नवग्रह युक्त जैन प्रतिमाओं को सिन्दूर पोतकर दूसरे नामों से पूजा अर्चना करने की परम्परा जैनेतर परम्परा में भी प्राप्त होती है। जसो, मैहर, उंचेहरा, रीवां आदि में अनेक जैन मूर्तियों को खैरामाई के नाम से पूजा जाता है। अत: यहां के कलाकारों ने कला प्रवृत्तियों को अनूठे ढंग से आत्मसात करके जैन संस्कृति के मौलिक रूप को सुरक्षित रखने का प्रयास किया। विन्ध्य प्रदेश
SR No.525083
Book TitleSramana 2013 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2013
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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