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________________ विन्ध्य क्षेत्र के दिगम्बर जैन तीर्थ ..... : 11 ग्रन्थ में उल्लिखित सभी ऋषियों को अर्हत् ऋषि, बुद्ध ऋषि एवं ब्राह्मण ऋषि कहा गया है। अत: उस समय अर्हत् ऋषियों की एक समृद्ध परम्परा थी। जिसे निर्ग्रन्थ परम्परा कहा गया है। पार्श्व एवं महावीर की एकीकृत परम्परा निर्ग्रन्थ नाम से जानी जाने लगी। जैन धर्म का प्राचीन नाम हमें इसी निर्ग्रन्थ नाम से ही मिलता है जिसका बौद्ध साहित्य में भी उल्लेख है। 'जैन' शब्द तो महावीर निर्वाण के लगभग १००० वर्ष बाद अस्तित्व में आया। अशोक (तीसरी-चौथी शती ईसा पूर्व), खारवेल ( दूसरी शती ईसा पूर्व) आदि के शिलालेखों में जैन धर्म का उल्लेख निर्ग्रन्थ संघ के रूप में ही हुआ है। उत्तर काल में संघ भेद क्यों हुआ? यह चर्चा यहां अभीष्ट नहीं है। महावीर काल में निर्ग्रन्थ संघ का प्रभाव क्षेत्र- बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उनके आसपास का प्रदेश ही था। किन्तु महावीर निर्वाण के पश्चात् इन सीमाओं में विस्तार होता गया। ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि निर्ग्रन्थ संघ अपने उद्गम-स्थल बिहार से दो दिशाओं में प्रचार अभियान के लिये आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण बिहार एवं बंगाल से उड़ीसा के रास्ते तमिलनाड़ गया और वहीं से उसने श्रीलंका और स्वर्ण देश की यात्रायें की। दूसरा वर्ग उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश होता हुआ मथुरा गया तथा उज्जयिनी होता हुआ श्रवणबेलगोल गया। प्रथम वर्ग जो श्रीलंका की तरफ गया था और जिसका अस्तित्व वहाँ बैद्धधर्म पहुँचने के पहले था, वह लगभग ईसापूर्व दूसरी शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण श्रीलंका से निकाल दिया गया, फलत: वह पुन: तमिलनाडु वापस आ गया । तमिलनाडु में लगभग ईसापूर्व प्रथम शती से ब्राह्मी लिपि में अनेक अभिलेख मिलते हैं जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि निम्रन्थ संघ महावीर निर्वाण के लगभग २००-३०० वर्षों पश्चात् तमिल प्रदेश पहुंच गया था। दीपवंस एवं महावंस के अनुसार निर्ग्रन्थ संघ पांचवीं-छठी शताब्दी ईसा पूर्व श्रीलंका पहुंच गया था। निश्चित ही यह संघ तमिलनाडु होता हुआ वहां पहुंचा होगा। दक्षिण और उत्तर की जलवायुगत विशेषता एवं तथ्यों के कारण महावीर निर्वाण के ६०५ वर्ष बाद अर्थात् प्रथम शताब्दी ईस्वी के लगभग श्वेताम्बर एवं दिगम्बर या सचेल तथा अचेल जैसे भेद हुए। इस तथ्य को अनेक अभिलेखीय तथा साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर सुनिश्चित किया जा सकता है। मथुरा के अभिलेख दोनों परम्पराओं के पक्ष में साक्ष्य उपलब्ध कराते हैं । दक्षिण भारत में अचेल निर्ग्रन्थ परम्परा का इतिहास ईस्वी सन् पूर्व की तीसरी-चौथी शती से मिलने लगता है। इसके समर्थन में अभिलेखीय या साहित्यिक साक्ष्यों का नितान्त अभाव है। इस काल के ब्राह्मी लिपि के अनेक जैन गुफा अभिलेख तमिलनाडु में पाये जाते हैं। जैन तमिल साहित्य भी अत्यन्त समृद्ध साहित्य है। ईसा की प्रथम शताब्दी में तमिल देश का
SR No.525083
Book TitleSramana 2013 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2013
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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