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________________ 28 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 3 / जुलाई - सितम्बर 2012 पहुँचाये जाने पर भी जो कोध से तप्त नहीं होता, उसको निर्मल क्षमाधर्म साधित होता है। यथा कोण जो ण तप्पदि, सुर - णर- तिरिएहि कीरमाणे वि । उवसग्गे वि रउ, तस्स खमा णिम्मला होदि ॥ 21 मूलाचार" में कहा गया है कि राग अथवा द्वेष के वश मैंने कोई अकृतज्ञता की हो अथवा प्रमाद के कारण किसी को अनुचित कहा हो तो मैं उन सबसे क्षमा चाहता हूँ। यथा रागेण व दोसेण व जं मे अकदण्हुयं पमादेण । जे किंचिवि भणिओं तमहं सम्मं खमाबेमि । समभाव भावपाहुड (गाथा 107) में कहा गया है कि सज्जन पुरुष, दुर्जनों के निष्ठुर और कठोर वचनरूपी चपेटों को भी संमभावपूर्वक सहन करते हैं। यथा दुज्जण - वयणचड़क्कं, णिट्ठर - कडुयं सहंति सप्पुरिसा । सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है कि जो समग्र विश्व को समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता है और न किसी का अप्रिय अर्थात् समदर्शी अपने-पराये की भेदबुद्धि से परे होता है । विनय उपदेशमाला में विनय को जिन शासन का मूल कहा गया है। संयम तथा तप से विनीत बनना चाहिये। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप? इसी तरह धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम लक्ष्य है। विनय के द्वारा ही मनुष्य बड़ी जल्दी शास्त्रज्ञान कीर्ति सम्पादन करता है । अन्त में निःश्रेयस् भी इसी के द्वारा प्राप्त होता है। सहिष्णुता दशवैकालिक सूत्र 24 में सहिष्णुता के सम्बंध में कहा गया है कि क्षुधा, प्यास व दुःशैय्या, विषमभूमि- युक्त वासस्थान, सर्दी, गर्मी, अरति, भय-इन सब कष्टों को मुमुक्षु अव्यथित चित्त से सहन करे। समभाव से सहन किये गये दैहिक कष्ट महाफल के हेतु होते हैं। यथा खुहं पिवासं दुस्सेज्जं, सीउन्हं, अरइ भयं । अहियासे अव्वहिओ, देह- दुक्खं महाफलं ॥ द्वादशानुप्रेक्षा2' में सहिष्णुता के सम्बन्ध में कहा गया है कि व्रती पुरुष उपसर्ग तथा तीव्र परिषह को ऋणमोचन (कर्ज चुकाने) की तरह मानता है । वह जानता
SR No.525081
Book TitleSramana 2012 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2012
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
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