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18 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 3 / जुलाई-सितम्बर 2012 अर्थात हे भव्य! तु मोक्षमार्ग में आत्मा को लगा, उसी का ध्यान कर, उसी का चिंतन कर, उसी में निरन्तर विहार कर। अन्य द्रव्यों में विहार मत कर।
इस प्रकर हम सबको धर्म का स्वरूप एवं महत्त्व समझकर अपने जीवन में धारण करना चाहिए। सन्दर्भः 1. अथर्ववेद, 9.9.17 2. छान्दोग्योपनिषद, 2/23 3. मनुस्मृति, 2/7 4. पूर्वमीमांसा सूत्र, 1, 1, 2 5. वैशेषिक सूत्र, 1/1/2 6. महाभारत (अनुशासन पर्व)115-1 7. महाभारत (वनपर्व) 373.76 8. मनुस्मृति 1.108 9. प्रवचनसार, गाथा सानाधिकार 7 10. रत्नकरण्ड श्रावकाचार 1/2 11. योगसार, 49 12. वही, 64 13. वही, 18 14. वही, 20 15. वही, 21 16. वही, 22 17. वही, 40 18. पद्मनन्दि पंचाविशंतिका, 1/7 19. वही, 1/133 20. समयसार, गाथा 215 21. वही, 216 22. वही, 217 23. वही, 218, 219 24. वही 220, 221, 222, 223 25. वही, 412