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________________ जैन चिन्तन में धर्म का स्वरूप एवं माहात्म्य णाणी रागप्पजहो, सत्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो । लिपदि रजण, कद्दममज्झे जहा कणयं ॥ अण्णाणी पुण रत्तो, सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो । लिप्पदि कम्मरएण दु, कद्दममज्झे जहा लोहं ॥ 23 अर्थात् ज्ञानी सब द्रव्यों में राग छोड़ने वाला है, इसलिए कर्म के मध्यगत होने पर भी कर्मरूपी रज से उस प्रकार लिप्त नहीं होता जिस प्रकार कि कीचड़ के बीच में पड़ा हुआ सोना परन्तु अज्ञानी सब द्रव्यों में रागी है, अतः कर्मों मध्यगत होता हुआ कर्मरूपी रज से उस प्रकार लिपा होता है जिस प्रकार कि कीचड़ के बीच में पड़ता हुआ लोहा । भुंजंतस्सवि विविहे, सच्चित्ता चित्तमिस्सिए दव्वे । संखस्स सेदभावो, णवि सक्कदि किण्ण्गो काऊं ॥ तह णाणिस्य वि विहे, सच्चिताचित्तमिस्सिए दव्वे । भुंजंतस्सवि णाणं, ण सक्कमण्णाणदं णेदु । जइया स एव संखो, सेद सहावं तयं पजहिदूण | गच्छेज्ज किण्हभावं, तझ्या सुक्कत्तणं पजहे ॥ तह वाणी विहु जड़या, णाण सहावं तयं पजहिऊण । अण्णाणेण परिणदो, तइया अण्णाणदं गच्छे | 24 : 17 अर्थात् जिस प्रकार यद्यपि शंख विविध प्रकार के सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का भक्षण करता है तो भी उसका श्वेतपना काला नहीं किया जा सकता। उसी प्रकार यद्यपि ज्ञानी विविध प्रकार के सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का उपयोग करता है तो भी उसका ज्ञान अज्ञानता को प्राप्त नहीं कराया जा सकता और जिस समय वही शंख उस श्वेत स्वभाव को छोड़कर कृष्ण भाव को प्राप्त हो जाता है उस समय वह जिस श्वेतपने को छोड़ देता है उसी प्रकार वह ज्ञानी जिस समय उस ज्ञान स्वभाव को छोड़कर अज्ञान स्वभाव से परिणत होता है उस समय अज्ञान भाव को प्राप्त हो जाता है। भाव यह है कि ज्ञानी के परकृत बंध नहीं है, वह आप ही जब अज्ञानरूप परिणमन करता है तब स्वयं निज के अपराध से बंधदशा को प्राप्त होता है। मोक्खप अप्पाणं, ठवेहि तं चेव झाहि तं चेव । तत्थेव विहर णिच्चं, मा विहरसु अण्णदत्व्वे || 25
SR No.525081
Book TitleSramana 2012 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2012
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
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