SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 24 : श्रमण. वर्ष 63, अंक 2 / अप्रैल-जून 2012 (2) शान्ति कर्म संस्कार- शान्तिकर्म से तात्पर्य संकट को दूर करने के लिए किये जाने वाले अनुष्ठान से है। सूतक समय को छोड़कर किसी भी समय रोग, दोष, महापाप होने पर यह क्रिया करायी जाती थी। कभी-कभी राजा विजयी होने. भय मुक्त होने व शत्रुओं का नाश करने हेतु भी यह संस्कार करते (3) पौष्टिक कर्म संस्कार- पौष्टिक शब्द से तात्पर्य वृद्धि कारक से है। यह संस्कार विशेष नक्षत्र व दिन में गुरु द्वारा कराया जाता था। सूतक के समय इसका निषेध था। (4) बलि विधान संस्कार- जैन परम्परा में बलि का अर्थ 'नैवेद्य' से बताया गया है। नैवेद्य से तात्पर्य देवताओं को खुश रखने के लिए उन्हें नैवेद्य (भोजन) अर्पित करने से है। वैदिक संस्कृति में नैवेद्य को 'वैश्वदेव' कहा गया है। जहाँ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह संस्कार गृहस्थ गुरु द्वारा कराया जाता था, वहीं दिगम्बर सम्प्रदाय में मुनि द्वारा कराया जाता था। व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार राजा महाबल ने इस संस्कार का आयोजन करते समय सभी मित्र व ज्ञानीजनों को आमंत्रित किया था। इसी प्रकार राजा जितशत्रु" व अभयकुमार" ने बलिकर्म करके अपने आगे के कार्यों को सम्पन्न किया था। (5) प्रायश्चित्त संस्कार- प्रायश्चित्त से तात्पर्य तप, चित्त-दृढ़संकल्प से है। अभिधान राजेन्द्रकोश के अनुसार ‘पापं छिन्नतीति पायच्छित्त' अर्थात् जो पापों का छेदन कर उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। जैन शब्दकोश में प्रायश्चित्त शब्द के संदर्भ में कहा गया है कि प्रति समय लगने वाले अंतरंग व बाह्य दोषों की निवृत्ति करने के लिए किये गये पश्चाताप. उपवास आदि को ग्रहण करना प्रायश्चित्त कहलाता है। अतः इस संस्कार का उद्देश्य अन्त:करण की शुद्धि करना था। यह कर्म दीक्षा लेने के पूर्व प्रत्येक श्रावक-श्राविका व श्रमण-श्रमणियों द्वारा गुरु के सान्निध्य में किया जाता था। (6) आवश्यक संस्कार- दिवस, रात्रि, मास एवं वर्ष भर के पापों की विशद्धि के लिए सम्मिलित रूप से जो आवश्यक कर्म किया जाता था उसे आवश्यक संस्कार कहा जाता था। भिक्षुआगम कोश के अनुसार मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना. दिन-रात में करणीय क्रमिक समाचारी का आचरण आदि समस्त क्रियायें आवश्यक संस्कार कहलाती हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार व्याधि, रोग, अशक्तता इत्यादि विकार जिसमें हैं. ऐसे व्यक्ति का अवश्य कहते हैं तथा ऐसे व्यक्ति की जो क्रियायें होती हैं उनको आवश्यक कहते हैं। परवर्ती साहित्य के अनुसार साधु-साध्वियों एवं श्रमण-श्रमणियों के लिए यह क्रिया
SR No.525080
Book TitleSramana 2012 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2012
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy