________________
जैन अंग साहित्य में प्रतिबिम्बित...... : 23 (14) अहोरात्रिचर्या संस्कार- यहाँ अहोरात्रि का अर्थ दिन व रात तथा चर्या का अर्थ आचरण विधि से है। प्रत्येक व्यक्ति की कुछ न कुछ दैनिक चर्या होती है, जिसे वह नियमित रूप से करता है, किन्तु मुनि जीवन की कुछ विशिष्ट चर्याएँ होती हैं, जिनका आचरण करना मुनि के लिए आवश्यक होता है। यथाकैसे साधु व साध्वियाँ प्रात:काल उठकर पंचपरमेष्ठी को याद करते हुए पूरा दिन व्यतीत करें तत्पश्चात् अपने आगे के कार्य करें आदि। अतः इस संस्कार में उनके पूरे दिन के कार्यों का उल्लेख मिलता है। (15) साधुओं की ऋतुचर्या विधि- यहाँ ऋतुचर्या से तात्पर्य ऋतु विशेष में की जाने वाली क्रियाओं के आचरण विधि से है अर्थात् किन-किन ऋतुओं में मुनि को किस प्रकार आहार-विहार आदि करना चाहिये, कैसे वस्त्र धारण करना चाहिये आदि। आचारांगसूत्र में भिक्षु के ऋतु सम्बन्धी वास (विहारचर्या),40 वस्त्र, पात्र, खान-पान आदि विधिविधानों का वर्णन मिलता है। (16) अन्तिम-संलेखना विधि- यहाँ अंतिम से तात्पर्य जीवन के अन्तिम चरण से तथा संलेखना से तात्पर्य शरीर व कषाय के कृशीकरण से है अर्थात् मनुष्य अपने अन्तिम समय में जिस आराधना से शरीर एवं कषाय का कृशीकरण करता है, उसे अंतिमसंलेखना कहते हैं। इस संस्कार का उद्देश्य मुनि को जीवन के अन्तिम क्षणों में आराधना करवाना है। यह संस्कार भी आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य अथवा मुनि द्वारा कराया जाता था। श्वेताम्बर साहित्य के अनुसार संलेखना बारह वर्ष, एक वर्ष तथा छः मास की होती थी। भिक्षु आगम कोश में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। गृहस्थ व मुनि के आठ संस्कार
कुछ संस्कार गृहस्थ व मुनि दोनों के लिए समान रूप से होते थे। इनका अंग साहित्य में केवल नामोल्लेख मिलता है। वैदिक संस्कृति में भी इन संस्कारों को धार्मिक कृत्य माना गया था जो निम्न हैं(1) प्रतिष्ठा संस्कार- प्रतिष्ठा शब्द से तात्पर्य यहाँ किसी स्थान के स्थायित्व से है। इस संस्कार में मूर्ति विशेष को नाम देकर पूज्यता प्रदान की जाती थी जिससे मूर्ति में शक्ति उत्पन्न हो जाती थी। यह संस्कार शुभ नक्षत्र, दिन, तिथि में किया जाता था। मेघकुमार श्रावक ने दीक्षा के पूर्व भिक्षु प्रतिमाओं का पूजन किया था।