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भेदविज्ञान द्वारा श्रावक-लोभसंवरण : 15 इसी प्रकार बहुत से आचार नियम हैं जो जैन नीति की सामाजिक- सार्थकता को स्पष्ट करते हैं। आज यह आवश्यक हो गया है कि वर्तमान सन्दर्भ में उनकी व्याख्या एवं समीक्षा कर उन्हें युगानुकूल बनाकर प्रस्तुत किया जाय।28 वात्सल्यगुण श्रावक में वात्सल्य गुण का होना अनिवार्य है। श्रावक का वात्सल्य दो प्रकार का है- धार्मिक और सामाजिक। धार्मिक दृष्टि से साधुओं के मोक्षमार्ग, जिनप्रणीत धर्म और जिनागम में प्रीति1 वात्सल्य है। सामाजिक दृष्टि से वात्सल्य का मुख्य सम्बन्ध साधर्मिकों से है- वात्सल्यं सधर्मणि स्नेहः। चारित्रसार" में कहा गया है- जिस प्रकार सद्यःप्रसूता गाय अपने बछड़े पर अत्यधिक प्रेम करती है उसी प्रकार श्रावक को चतुर्विधसंघ पर स्वाभाविक प्रेम करना चाहिए। मूलाचार में कहा गया है कि कायिक, वाचिक, मानसिक अनुष्ठानों के द्वारा, सभी प्रयत्नों से उपकरण, औषध, आहार, अवकाश, शास्त्रादि दानों से संघ के प्रति वात्सल्य करना चाहिये। कुरल काव्य में वात्सल्यरहित धर्म को निरर्थक बताया गया है। जिस प्रकार सूर्य हाड़-मांस से रहित कीड़े को जला डालता है उसी प्रकार चतुर्विधसंघ पर वात्सल्य से रहित श्रावक को धर्म रूपी सूर्य जला डालता है। वात्सल्य गुण की महत्ता बताते हुए कहा गया है इस अकेले गुण से ही तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध हो जाता है।35 आज के परिप्रेक्ष्य में वात्सल्य मात्र स्वमतावलम्बियों तक ही सीमित नहीं है इसका क्षेत्र समस्त मानव जाति ही नहीं, समस्त पशु-पक्षी ही नहीं अपितु समस्त वनस्पतियां, भूमि, जल, वायु अग्नि आदि भी इसकी परिधि में आती हैं। इन सबका भी संरक्षण आवश्यक है। श्रावक समस्त चराचर जगत् का तीन योग और तीन करण से संरक्षक है। वीतरागता श्रावक के लक्षण, गुण और कर्त्तव्य पर प्रकाश डालने के पश्चात् जैन शास्त्रों में वर्णित वीतरागता के स्वरूप पर किंचित प्रकाश डाला जाता है। धवला के अनुसार मोहनीय कर्म के क्षय से जीव राग-द्वेष से रहित वीतराग हो जाता है। जैन शास्त्रों में समता, माध्यस्थ भाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभाव की आराधना- ये एकार्थक बताये गये हैं। प्रवचनसार-टीका के अनुसार भेदज्ञान की उत्कृष्ट भावना से निर्विकार आत्मस्वरूप को जो प्रकट करने वाला है वह वीतराग है। भेदज्ञान को यहां विवेक भावना भी कहा गया है। श्रावक के सम्बन्ध में वीतरागता से अभिप्राय होगा भेदज्ञान के आलम्बन एवं अभ्यास से समस्त आत्मेतर परपदार्थों के पृथक्त्व की भावना को निरन्तर दृढ़ करते जाना।