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________________ 16 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 वीतरागता का आधार भाव है रागी जीवों को वन में रहते हुए भी दोष विद्यमान रहते हैं परन्तु जो राग से विमुक्त हैं उनके लिए घर भी तपोवन हैं क्योंकि वे घर में भी पांचों इन्द्रियों के निग्रह रूप तप करते हैं और अकुत्सित भावनाओं का वर्तन करते हैं। कषाय-कर्म बन्धन का प्रमुख कारण होने से जैनाचार्यों ने कषाय के स्वरूप पर विस्तार से विचार किया है। जैन साहित्य में कषाय शब्द सात अर्थों में प्रयोग में आया है- 1. क्रोध, मान, माया और लोभ, 2. रसविशेष कसैला, 3. वर्ण-विशेष, लाल-पीला रंग, 4. क्वाथ, काढ़ा (पेय), 5. कसैला स्वाद वाला, 6. कषाय रंग और 7. सुगन्धी, खुशबूदार। क्रोध आदि के अर्थ के रूप में प्रयुक्त कषाय की व्युत्पत्ति बताते हुए आचार्य हरिभद ने कहा है-कष गतौ इति कष शब्देन कर्माभिधीयते भवो वा, कषस्य आया लाभाः प्राप्तयः कषायाः क्रोधादयः। पंचसंग्रह की स्वोपज्ञवृत्ति में भी आचार्य हरिभद्र ने कहा है- कष अर्थात् संसार उसको प्राप्त कराने वाला कषाय है। धवला' में कहा गया है- सुख और दुख रूपी बहु फसलों वाले कर्म रूपी खेत को जोतते हैं अतः कषाय हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण"ने कषाय का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा कि कर्म अथवा संसार को कष कहा जाता है। इस प्रकार कष अर्थात् कर्म या संसार को जो प्राप्त कराते हैं वे कषाय हैं। कषाय चार हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ।। कषाय-शमन-भगवती आराधना और आचारसार" में इन कषायों के शमन का उपाय बताते हुए कहा गया है कि भावों की विशुद्धि का नाम कषाय सल्लेखना है। सद्ध्यान से कषायविषयक सल्ल नाम कषाय सल्लेखना है। सद्ध्यान से कषायविषयक सल्लेखना श्रेयस्कर है। ये कषाय आत्मा के गुणों का ही विघात नहीं करते बल्कि सामाजिक जीवन में भी विषमता उत्पन्न करने के कारण हैं। लोभ या संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार, क्रूर व्यवहार, विश्वासघात आदि की दुष्प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। क्रोध आवेश आदि दुष्प्रवृत्तियाँ संघर्ष, कलह, वैमनस्य, आक्रमण, हत्या आदि का कारण बनती हैं। मान या गर्व क्रूर और घृणा पूर्ण व्यवहार का कारण बनता है। माया के कारण अविश्वास या अमैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है। इस प्रकार सामाजिक जीवन दूषित करने में कषाय बहुत बड़े कारण हैं। लोभ-कषाय का स्वरूप
SR No.525079
Book TitleSramana 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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