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________________ vi : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ वर्तमान हुण्डावसर्पिणी काल : असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालों के व्यतीत हो जाने पर हुण्डावसर्पिणी काल आता है। आजकल अवसर्पिर्णी के पञ्चम काल का हुण्डावसर्पिणी काल चल रहा है। इस हुण्डावसर्पिणी काल में अपवादस्वरूप कुछ असाधारण बातें होती हैं। जैसे- सभी तीर्थङ्करों का जन्म अयोध्या में होना चाहिए था परन्तु इस काल-दोष के कारण ५ तीर्थङ्करों (ऋषभनाथ, अजितनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ और अनन्तनाथ) का ही जन्म अयोध्या में हुआ है। इसी प्रकार सभी तीर्थङ्करों का मोक्ष सम्मेद शिखर से होना चाहिए था परन्तु ४ तीर्थङ्करों (आदिनाथ, वासुपूज्य, नेमिनाथ और महावीर) का मोक्ष अन्य स्थानों से हुआ है। तीर्थङ्करों पर उपसर्ग नहीं होना चाहिए परन्तु इस काल में ३ तीर्थङ्करों सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर पर उपसर्ग हुए। चतुर्थ काल में ही २४ तीर्थङ्कर होते हैं परन्तु इस काल में प्रथम तीर्थङ्कर तीसरे काल में उत्पन्न होकर उसी काल में मोक्ष को प्राप्त हो गये। तीर्थङ्करों को पुत्री उत्पन्न नहीं होती परन्तु काल-दोष के कारण प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ की दो पुत्रियाँ (ब्राह्मी और सुन्दरी) हुईं। मुखपृष्ठ चित्र-परिचय : इस अङ्क के मुख पृष्ठ पर तीर्थङ्कर ऋषभदेव द्वारा अपनी दोनों पुत्रियों को शिक्षा देते हुए दिखाया गया है। ब्राह्मी को लिपि विद्या (अ, आ, आदि वर्ण ज्ञान) तथा सुन्दरी को अङ्क विद्या (१, २, ३ आदि)। भरत, बाहुबली आदि १०१ पुत्रों को भी उन्होंने विभिन्न विद्याओं में निपुण किया था। जब ऋषभदेव का जन्म हुआ था तब भोगभूमि का अन्तिम समय था और कर्मभूमि का प्रारम्भ। भोगभूमि काल में लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कल्पवृक्षों (इच्छित फल प्रदान करने वाले १० प्रकार के वृक्ष) से कर लेते थे, उन्हें श्रम नहीं करना पड़ता था। जब वे कल्पवृक्ष नहीं रहे तो लोगों को आजीविका चलाने हेतु ऋषभदेव ने छ: प्रकार की शिक्षा दी- १. असि (शस्त्र विद्या), २. मसि (लेखन कार्य), ३. कृषि (खेती), ४. वाणिज्य (व्यापार), ५. शिल्प (दस्तकारी) और ६. विद्या (गायन, वाद्य, चित्रकारी आदि)। इस तरह ऋषभदेव ने लोगों को आजीविका के साधन बतलाये तथा उनके कार्यों के आधार पर समाज को तीन भागों में विभक्त किया- १. क्षत्रिय, २. वैश्य और ३. शूद्र। आगे चलकर उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना करके समाज को चार भागों में विभक्त किया। यह सम्पूर्ण विभाजन लोगों के कार्यों के आधार पर था, न कि जाति के आधार पर। प्रो० सुदर्शन लाल जैन
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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