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सम्पादकीय ( कालचक्र और ऋषभदेव)
कालचक्र
जैनागम के अनुसार दृश्यमान जगत (केवल भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों के आर्य खण्ड) में काल-चक्र सदा घूमता रहता है। यह दो भागों में विभक्त है१. अवसर्पिणी काल
इस काल में जीवों की आयु, बल, सुख-सम्पदा आदि घटती जाती है। इसकी अवधि १० कोड़ा - कोड़ी सागर मानी जाती है। इस काल के छः उप-विभाग होते हैं- सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा- सुषमा, दुषमा और दुषमा - दुषमा । इनकी समय सीमा क्रमश: इस प्रकार है- चार कोड़ा - कोड़ी सागर, तीन कोड़ा - कोड़ी सागर, दो कोड़ा - कोड़ी सागर, ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर, २१ हजार वर्ष और २१ हजार वर्ष। छठवें काल के अन्तिम ४९ दिनों की अवधि प्रलय की स्थिति है और श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ होता है।
चतुर्थ काल (दुषमा- सुषमा) में ६३ शलाकापुरुष (२४ तीर्थङ्कर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव या बलभद्र, ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण) जन्म लेते हैं। इसके तृतीय काल (दुषमा- सुषमा) में १४ कुलकर होते हैं।
२. उत्सर्पिणी काल
इसमें जीवों की आयु, सुख-सम्पदा आदि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। इसकी अवधि भी १० कोड़ा - कोड़ी सागर है एवं इसके भी छ: उपविभाग (आरे) हैं- दुषमादुषमा, दुषमा, दुषमा- सुषमा, सुषमा-दुषमा, सुषमा और सुषमा- सुषमा । यह अवसर्पिणी काल से उलटा चलता है अर्थात् दुःख से सुख की ओर जबकि अवसर्पिणी काल सुख से दुःख की ओर बढ़ता है। इस उत्सर्पिणी काल के प्रारम्भ में ४९ दिनों तक सुवृष्टि होती है। इसके द्वितीय काल (दुषमा) में २० हजार वर्ष बीत जाने पर कुलकरों (१४ मनु) की उत्पत्ति होती है जो मनुष्यों को खेती करना, खाना पकाने आदि की शिक्षा देते हैं। तीसरे काल में ६३ शलाकापुरुष उत्पन्न होते हैं।
अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों कालों का संयुक्त नाम है- 'कल्पकाल' । दोनों कालों का चक्र एक जैसा है। अवसर्पिणी के कालों को क्रमशः उत्तम भोगभूमि, मध्यम भोगभूमि, जघन्य भोगभूमि, उत्तम कर्मभूमि, मध्यम कर्मभूमि और अधम कर्मभूमि काल कह सकते हैं। इसी तरह विपरीत क्रम से उत्सर्पिणी काल को जानना ।