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________________ ६२ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ बन्ध का विवेचन इस प्रकार हैबन्ध : - कार्मण पुद्गलों के ग्रहण एवं बन्ध के होने के साथ ही आत्मा के योग और कषाय के अनुसार पिंडीभूत पुद्गलों की, स्वभाव, काल, फल-दान और परिणाम रूप कर्मबन्ध की चार अङ्गभूत अवस्थायें निष्पन्न हो जाती है। ये चार अवस्थायें क्रमश हैं : अ. प्रकृतिबन्ध ब. स्थिति बन्ध स. अनुभागबन्ध द. प्रदेशबन्धा प्रकृतिबन्ध : जीव द्वारा गृहीत कर्मपुदगलों द्वारा आत्मा के ज्ञानादि गुणों को ढंकना आदि स्वभाव अर्थात् शक्ति का पैदा होना प्रकृतिबन्ध है।१५ यह बन्ध योग तथा कषाय के निमित्त से होता है। प्रकृति बन्ध मूलप्रकृति, उत्तर-प्रकृति तथा उतरोत्तर प्रकृति के प्रकार से तीन प्रकार का है। . मूलप्रकृतियाँ आठ प्रकार की हैं जो प्राणी को विविध प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं :१- ज्ञानावरणीय २- दर्शनावरणीय ३- वेदनीय ४- मोहनीय ५- आयुष्य ६- नाम ७- गोत्र ८- अन्तराय।१६ स्थिति बन्य : प्रत्येक कर्म आत्मा के साथ निश्चित समय तक ही रह सकता है। स्थिति पूर्ण होने पर वह आत्मा से अलग जा पड़ता है। यह स्थिति बन्ध है। यह स्थिति जीवों के कषायादि परिणामों की तीव्रता-मन्दता की तरतमता के अनुसार अनेक प्रकार की होती है। अनुभाग बन्य : कर्मों के फल देने की शक्ति की हीनता अथवा अधिकता को अनुभाग कहते हैं। जीव के कषाय रूप परिणामों के निमित्त से गृहीत कार्मणवर्गणा के पुद्गल रस युक्त होकर विपाक काल में उस रूप में अपना-अपना फल देकर जीव को सुख-दुःख आदि का अनुभव करवाते हैं। प्रदेश बन्य : ग्रहण के समय कर्म-पुद्गल अविभक्त होते हैं। ग्रहण के पश्चात् वे आत्मप्रदेशों के साथ एकीभूत हो जाते है।८ कर्म रूप पुद्गलों का आत्मा के प्रदेशों से सम्बन्ध होना प्रदेश बन्ध है। जैनदर्शन में कर्मबन्ध की दस अवस्थायें मानी गई हैं- १- बन्ध, २-सत्ता, ३उदय, ४- उदीरणा, ५- उद्वर्तना, ६- अपवर्तना, ७- संक्रमण, ८- उपशमन, ९- निधत्ति, १०- निकाचना। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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